वक्फ संशोधन विधेयक: आंदोलन की सुस्त रफ्तार और मुस्लिम नेतृत्व की खामोशी
मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली
पिछले बारह वर्षों में सूफीवाद, पसमांदा विमर्श, गंगा-जमुनी तहज़ीब और शिया-सुन्नी बहस जैसे विषयों के बहाने मुसलमानों के भीतर फूट डालने की जो कोशिशें की गईं, वे अब वक्फ संशोधन विधेयक के पारित होने के साथ एक निर्णायक मोड़ पर आ पहुँची हैं।
सरकार समर्थक मुस्लिम वर्ग आज इस कदर हावी होता दिख रहा है कि जो लोग वक्फ संशोधन विधेयक का विरोध कर रहे हैं, उन्हें सोशल मीडिया से लेकर ईद मिलन जैसे सामाजिक आयोजनों में खुलेआम बदनाम किया जा रहा है। ऐसा माहौल गढ़ा जा रहा है मानो मुसलमानों की मौजूदा बदहाली के लिए यही विरोध करने वाले जिम्मेदार हों।
विडंबना यह है कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर जो संघर्ष और प्रतिरोध अपेक्षित था, वह कहीं दिखाई नहीं दे रहा। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत उलमा-ए-हिंद, जमात-ए-इस्लामी हिंद, AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी या रजा अकादमी—इन तमाम संस्थाओं की प्रतिक्रिया न सिर्फ सीमित रही है, बल्कि उनका सोशल मीडिया अभियान भी बेहद कमज़ोर और दिशाहीन रहा है।
विरोध की धार अदालत की ओर मुड़ गई है, जहां विधेयक के खिलाफ याचिका दायर की गई है। विरोधी यह मानकर आश्वस्त नज़र आ रहे हैं कि न्यायपालिका उन्हें इंसाफ देगी और यह संशोधन निरस्त हो जाएगा। लेकिन क्या यह आत्मविश्वास उचित है? क्योंकि इन्हीं मुस्लिम रहनुमाओं ने बीते वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों—जैसे सीएए, अनुच्छेद 370, तीन तलाक, बाबरी मस्जिद—को पक्षपाती बताया है।
वक्फ संशोधन एक्ट की लड़ाई सिर्फ कोर्ट में लड़कर नहीं जीती जा सकती, किसान आंदोलन की वजह से कृषि कानून वापस हुए थे इसलिए हमें भी सड़कों पर उतरना होगा: एडवोकेट महमूद प्राचा (सुप्रीम कोर्ट)@MehmoodPracha #WaqfBill #India
— Journo Mirror (@JournoMirror) April 8, 2025
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वक्फ विधेयक के लोकसभा और राज्यसभा में पारित होने के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने एक विस्तृत बयान जारी कर संघर्ष का ऐलान किया था, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उसका कोई असर नहीं दिखा। उल्टा, आरएसएस समर्थित कुछ मुस्लिम चेहरे बाकायदा जलसे-जुलूस कर रहे हैं और 700 प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करने का एलान कर चुके हैं। इसके मुकाबले विरोधी खेमा अब तक कोई संगठित जवाब नहीं दे सका।
जब सरकार विरोधी आंदोलनों का इतिहास देखा जाए—चाहे वह आज़ादी का आंदोलन रहा हो, जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति आंदोलन हो या फिर हालिया किसान आंदोलन—हर बार जनता की लामबंदी निर्णायक साबित हुई है। लेकिन वक्फ जैसे गंभीर मुद्दे पर न नेतृत्व दृढ़ है और न ही रणनीति स्पष्ट।
विरोध की पहली पंक्ति में मौजूद लोग इस भ्रम में हैं कि सोशल मीडिया ट्रेंड या अदालत की याचिका पर्याप्त है। जबकि हकीकत यह है कि अगर वक्फ विधेयक मुसलमानों के हितों के विरुद्ध है, तो उसकी मुखालफत भी उतनी ही प्रतिबद्धता और ताक़त के साथ होनी चाहिए। यह समय रणनीतिक चुप्पी का नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण प्रतिरोध का है।
बड़े आंदोलन बिना त्याग के संभव नहीं होते। इतिहास गवाह है कि हर सफल जनांदोलन में गिरफ्तारी, बलिदान और सड़क पर उतरने की हिम्मत दिखानी पड़ती है। ऐसे में अगर मुस्लिम नेतृत्व वाकई गंभीर है, तो उन्हें सबसे पहले बुज़ुर्गों को गिरफ्तारी के लिए तैयार करना चाहिए और युवाओं को आंदोलन की अगली कतार में लाना चाहिए—वे युवा जो विचारशील हैं, जो सोशल मीडिया के भ्रम को तार-तार कर सकें और मुद्दे की सच्चाई को जन-जन तक पहुँचा सकें।
यह आंदोलन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, आर्थिक और संवैधानिक अस्तित्व की लड़ाई है। मुसलमानों को चाहिए कि वे संगठित होकर, संविधानिक दायरे में रहकर, परंतु पूरी दृढ़ता और साहस के साथ अपने अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करें। यदि ऐसा न हो सका, तो यह चुप्पी आने वाली पीढ़ियों पर भारी पड़ेगी।