जब बाराबंकी ने लिखा ईरान का भाग्य: खुमैनी की विरासत और खामेनेई का उभार
Table of Contents
मुस्लिम नाउ विशेष ब्यूरो, नई दिल्ली
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के एक छोटे-से गांव किंटूर से शुरू हुई एक रूहानी यात्रा ने इतिहास की दिशा बदल दी। यह कहानी है उस मुसाफिर की, जिसने अपने रूहानी सफर की शुरुआत भारत से की, और अंतत: ईरान की धार्मिक सत्ता की नींव रखी। यह कहानी है सैयद अहमद मुसवी हिंदी की—और उनके उस वंश की, जिसमें आगे चलकर जन्म हुआ इस्लामी क्रांति के अगुवा रुहोल्लाह खुमैनी और आज के ईरानी सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई का।

भारत से इराक, फिर ईरान तक एक धार्मिक यात्रा
यह किस्सा 1800 के दशक की शुरुआत का है। उस दौर में जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में अपने पांव पसार रही थी, बाराबंकी के किंटूर गांव में एक विद्वान शिया मौलवी सैयद अहमद मुसवी का जन्म हुआ। उनका परिवार मूलतः ईरान से भारत आया था, लेकिन सैयद अहमद ने अपने जीवन की दिशा उलट दी। 1830 में उन्होंने भारत छोड़कर धार्मिक अध्ययन और ज़ियारत के लिए इराक का रुख किया, जहां उन्होंने नजफ़ और कर्बला के शिया तीर्थस्थलों में समय बिताया।
इसके बाद वे ईरान के खुमैन शहर में बस गए। वहीं उन्होंने विवाह किया और एक नया वंश आरंभ किया। हालांकि उन्होंने कभी भारत की अपनी जड़ों को नहीं छोड़ा। अपने नाम के साथ उन्होंने “हिंदी” उपनाम जोड़ लिया और जीवन भर उसे अपनाए रखा। आज भी ईरानी दस्तावेजों में उनका नाम “सैयद अहमद मुसवी हिंदी” के रूप में दर्ज है। उनका निधन 1869 में हुआ और उन्हें कर्बला में दफनाया गया, लेकिन उनकी आध्यात्मिक विरासत ने ईरान की धार्मिक राजनीति को गहराई से प्रभावित किया।
खुमैनी: एक विरासत का विस्तार
सैयद अहमद मुसवी के पोते रुहोल्लाह खुमैनी, जिन्होंने 24 सितंबर 1902 को ईरान के खुमैन में जन्म लिया, आगे चलकर इस विरासत के सबसे प्रभावशाली प्रतिनिधि बने। बचपन में ही उन्होंने कुरान की तालीम शुरू की और बाद में क़ुम जैसे धार्मिक नगर में जाकर शिया इस्लाम की गहराई से पढ़ाई की। जब ईरान के शाह रज़ा पहलवी ने अमेरिका से घनिष्ठ संबंध बनाए और पाश्चात्यकरण की नीति अपनाई, तब खुमैनी ने उसके खिलाफ आवाज़ बुलंद की।
इस विरोध की वजह से उन्हें देश से निकाल दिया गया। वे तुर्की, इराक और फिर फ्रांस में निर्वासन में रहे। लेकिन उनकी क्रांतिकारी तकरीरें और विचार लगातार ईरान की जनता के दिलों में उतरते रहे।
1979: इस्लामी क्रांति और सत्ता का बदलाव
1979 में इस्लामी क्रांति के ज़रिए खुमैनी ने शाह की सत्ता को उखाड़ फेंका और ईरान को एक धर्म-आधारित गणराज्य में बदल दिया। इस नई व्यवस्था में सर्वोच्च शक्ति “सुप्रीम लीडर” को दी गई—एक ऐसा धार्मिक और राजनीतिक प्रमुख जो संविधान, न्यायपालिका और सेना से भी ऊपर होता है।
जब 1989 में अयातुल्ला खुमैनी का निधन हुआ, तब उनकी जगह ली उनके करीबी शिष्य और अनुयायी अली खामेनेई ने।
अली खामेनेई: क्रांति का उत्तराधिकारी
अली खामेनेई का जन्म 1939 में ईरान के मशहद शहर में हुआ। वे पूर्वी अज़रबैजान प्रांत के खामानेह क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं। उनके पिता जवाद खामेनेई एक प्रतिष्ठित मौलवी थे। अली ने कम उम्र में ही धार्मिक शिक्षा लेना शुरू कर दिया और शिया थियोलॉजी, फारसी साहित्य तथा इस्लामी इतिहास में पारंगत हो गए। वे खुमैनी के विचारों से इतने प्रभावित हुए कि इस्लामी क्रांति के दौरान उनके सबसे प्रमुख साथियों में से एक बन गए।
1989 में जब उन्हें सुप्रीम लीडर बनाया गया, तब से लेकर आज तक, यानी चार दशकों से अधिक समय तक, वे ईरान की सर्वोच्च सत्ता को संभाले हुए हैं।

सुप्रीम लीडर के रूप में अली खामेनेई
रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, खामेनेई ने अपने नेतृत्व में ईरान को क्षेत्रीय महाशक्ति में बदल दिया है। खाड़ी क्षेत्र के सुन्नी देशों के खिलाफ शिया मोर्चा खड़ा किया, और अमेरिका व इज़राइल के विरोध में अपनी रणनीति को कठोर बनाया। उन्होंने अपने शासनकाल में कई बार घरेलू आंदोलनों और विरोधों को सख्ती से कुचला है। लेकिन साथ ही, उन्होंने लेबनान के हिज़्बुल्लाह, यमन के हूती विद्रोहियों, सीरिया की असद सरकार और इराकी शिया गुटों को समर्थन देकर एक व्यापक शिया नेटवर्क तैयार किया है।
जब भारत की जड़ें गूंजती हैं ईरान की सत्ता में
आज जब खामेनेई की आवाज़ संयुक्त राष्ट्र, ग़ाज़ा और काबुल तक सुनाई देती है, तो शायद ही कोई सोचता हो कि उनके आध्यात्मिक पूर्वज का जन्म कभी भारत के एक गांव में हुआ था। सैयद अहमद मुसवी हिंदी, जिन्होंने एक लंबी यात्रा की शुरुआत की, वह यात्रा अब भी जारी है—न सिर्फ ईरान की राजनीति में, बल्कि वैश्विक भू-राजनीति में भी।
यह सिर्फ एक इतिहास की बात नहीं है, बल्कि यह बताता है कि भारत की रूहानी मिट्टी ने कैसे एक ऐसे नेता की नींव रखी, जो आज विश्व के सबसे ताकतवर धार्मिक नेताओं में गिना जाता है।