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अब्दुल करीम टुंडा के 31 साल कौन लौटाएगा, क्या भारत में आतंकवाद निरोधी कानून का हो रहा गलत इस्तेमाल ?

मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली

जेल में 1993 के अजमेर बम ब्लास्ट केस में जले मंे बंद अब्दुल करीम टुंडा को 31 साल बेगुनाह बताकर जेल से रिहा कर दिया गया. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. इससे पहले भी कई ऐसी मिसालें मिलें हैं.आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार करने के बाद सालों जेल में सड़ने के बाद इसके आरोपी अदालत से बाइज्जत बरी कर दिए जाते हैं. अल-जजीरा की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि आतंकवाद के मामले में केवल दो प्रतिशत लोगों को ही सजा हो पाती है, बाकी या तो बाइज्जत बरी कर दिए जाते हैं या फिर सुरक्षा ऐंसियां अदालतों में आरोपियों के दोष सिद्ध नहीं कर पाते हैं.

अज-जजीरा ने 2 जुलाई 2021 को ‘विथ टू प्रसेंट कन्विक्शन: इंडिया टेरर लाॅ मोर एक पाॅलिटिकल विपेन’ शीर्षक से एक रिपोर्ट अपनी बेवसाइट पर प्रकाशित की थी. उक्त रिपोर्ट में कहा गया था-‘‘

2021 की शुरुआत में संसद में भारत के गृह मंत्रालय द्वारा साझा किए गए आंकड़ों के अनुसारए 2015 की तुलना में 2019 में यूएपीए के तहत गिरफ्तारियों की संख्या में 72 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

सरकारी आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि 2016 और 2019 के बीच कानून के तहत गिरफ्तार किए गए 5ए922 लोगों में से केवल 132 को दोषी ठहराया गयाण् कुल गिरफ्तारियों का लगभग दो प्रतिशत.

दिल्ली उच्च न्यायालय ने तीन छात्र कार्यकर्ताओं . आसिफ इकबाल तन्हाए देवांगना कलिता और नताशा नरवाल को जमानत दे दी थी . जिन पर विवादास्पद नागरिकता कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के लिए यूएपीए के तहत आरोप लगाया गया था और एक साल से अधिक समय तक जेल में रखा गया था.

अदालत ने अपनी जमानत में कहाए ष्हम यह व्यक्त करने के लिए बाध्य हैं कि ऐसा लगता है कि असहमति को दबाने की चिंता मेंए राज्य के दिमाग मेंए विरोध के संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच की रेखा कुछ धुंधली होती जा रही है.अगर यह मानसिकता जोर पकड़ती है, तो यह लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन होग.

जब 15 जून को भारत के महानगर मुंबई की एक अदालत ने मोहम्मद इरफ़ान को ष्आतंकवादष् और अन्य आरोपों से बरी कर दियाए तो उन्हें समझ नहीं आया कि कैसे प्रतिक्रिया दें और अपनी सीट पर सुन्न हो गए.

पश्चिमी राज्य महाराष्ट्र के नांदेड़ के रहने वाले 33 वर्षीय व्यक्ति और उनके परिवार ने नौ साल तक इस पल का इंतजार किया था.

उन्होंने अल जजीरा को बतायाए ष्जब अदालत ने मुझे बरी कर दिया तो मैं कुछ समय तक अपनी सीट से हिल नहीं सकाण्ण्ण् आखिरकारए आतंकवादी का टैग चला गया.मैं निर्दोष था और मुझे पता था कि एक दिन मैं आज़ाद होकर निकलूंगाए लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि इसमें नौ साल लगेंगे.

33 वर्षीय इरफानए 2012 में नांदेड़ से महाराष्ट्र पुलिस के आतंकवाद विरोधी दस्ते ;एटीएसद्ध द्वारा कड़े आतंकवाद विरोधी कानूनरू गैरकानूनी गतिविधियां ;रोकथामद्ध अधिनियमए या यूएपीए सहित विभिन्न आरोपों के तहत गिरफ्तार किए गए पांच मुसलमानों में से एक था.

पांचों लोग राज्य में आग्नेयास्त्रों की जब्ती से जुड़े थे. पुलिस ने आरोप लगाया कि वे प्रमुख राजनेताओंए पुलिस अधिकारियों और पत्रकारों को मारने के लिए पाकिस्तान स्थित सशस्त्र समूहए लश्कर.ए.तैयबा ;एलईटीद्ध की साजिश का हिस्सा थे.

कश्मीर में श्रीनगर के रैनावारी इलाके के निवासी बशीर अहमद बाबा को 11 साल बाद गुजरात राज्य के आनंद शहर की एक अदालत ने इसी तरह के आरोपों से बरी कर दिया था.

फरवरी 2010 मेंए बाबा उस एनजीओ द्वारा आयोजित कैंसर उपचार पर एक कार्यशाला में भाग लेने के लिए गुजरात के मुख्य शहर अहमदाबाद गए थेए जिसके लिए वह काम कर रहे थे.

जिस दिन उन्हें श्रीनगर लौटना थाए उसी दिन गुजरात पुलिस ने उन्हें यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर लिया. उन पर ष्भारत में आतंक फैलाने के लिए पाकिस्तान में प्रशिक्षण शिविरोंष् में भेजने के लिए मुस्लिम पुरुषों की भर्ती करने का आरोप लगाया गया था.

मीडिया के कुछ हिस्सों मेंए 44 वर्षीय बाबा को खाली पेप्सी कोला के डिब्बे में इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइसेज को इकट्ठा करने की उनकी कथित क्षमता के लिए ष्पेप्सी बॉम्बरष् के रूप में ब्रांड किया गया था.

पुलिस ने उन पर भारत प्रशासित कश्मीर में आंदोलन में शामिल होने और सुरक्षा बलों पर पेप्सी कैन में आईईडी फेंकने का आरोप लगाया. लेकिन सुनवाई के दौरान आरोप साबित नहीं हो सकाण्

यूएपीए कार्यकर्ताओंए धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने और लोगों के बीच डर पैदा करने के लिए एक सुविधाजनक उपकरण बन गया है ताकि एक सत्तावादी राज्य के लिए दंडमुक्ति के साथ कार्य करने का तर्क तैयार किया जा सके.

वृंदा ग्रोवरए वकील और कार्यकर्ता

बाबा के 11 साल के कारावास के दौरानए उनकी दोनों बहनों की शादी हो गई और 2017 में उन्होंने अपने पिता को कैंसर से खो दिया.

उन्होंने अल जज़ीरा को बताया,मैं अपनी बहनों को दुल्हन के लिबास में नहीं देख सका. जब मेरे पिता की कैंसर से मृत्यु हो गई तो मैं उन्हें अंतिम सम्मान नहीं दे सका. वास्तव मेंए मुझे उनके निधन के बारे में दो महीने बाद पता चला. केवल मैं और मेरा भगवान ही जानते हैं कि मैंने जेल में वे 11 लंबे साल कैसे बिताए.ष्

राज्य की असहमति को दबाने की चिंता

इरफ़ान और बाबा यूएपीए और अन्य आतंकवाद कानूनों के तहत आरोपित सैकड़ों मुख्य रूप से मुस्लिम या वामपंथी कार्यकर्ताओं में से केवल दो हैंए जिन्हें अदालतों द्वारा निर्दोष पाए जाने से पहले वर्षोंए कुछ को तो एक दशक से भी अधिक समय तक जेल में रखा गया है.

हालाँकि यूएपीए 1967 से लागू थाए भारत की संसद ने आतंकवादी गतिविधियों को दंडित करने के लिए एक समर्पित अध्याय 2004 में ही शामिल किया.

2019 मेंए कानून में फिर से संशोधन किया गयाए जिससे सरकार को व्यक्तियों को ष्आतंकवादीष् के रूप में टैग करने की अनुमति मिल गई. पहलेए सरकार केवल संगठनों को ही आतंकवादी घोषित कर सकती थीए व्यक्तियों को नहीं.

हाल के वर्षों मेंए कई पत्रकारोंए कार्यकर्ताओं और छात्रों पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया हैए जिससे इस कानून की व्यापक आलोचना हुई है.

इरफ़ानए जिसका एक आठ साल का बेटा हैए ने अल जज़ीरा को बताया कि अगस्त 2012 में पूछताछ के लिए उसे पुलिस स्टेशन में बुलाए जाने के एक दिन बादए पुलिस ने मीडिया रिपोर्टों में उसे ष्आतंकवादीष् घोषित कर दियाण्

उन्होंने कहा कि उनके परिवार को एकांतवासी के रूप में रहना पड़ा क्योंकि उनके पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने उनसे बातचीत करना बंद कर दिया थाण् उन्हें डर था कि ष्आतंकवादी परिवारष् के संपर्क में रहने के कारण उन्हें भी परेशानी हो सकती है.

मैं जानता हूं कि सरकार उन अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेगी जिन्होंने मुझे मनगढ़ंत आरोपों के तहत गिरफ्तार किया.अपनी गिरफ्तारी से पहलेए इरफान नांदेड़ में बिजली इनवर्टर का एक सफल व्यवसाय चलाता था और प्रति माह लगभग 1ए000 डॉलर कमाता था,

लेकिन लंबे कारावास का मतलब था कि उन्होंने न केवल अपने जीवन के प्रमुख वर्ष खो दिएए बल्कि अपना व्यवसाय भी खो दिया। लंबी कानूनी लड़ाई की लागत को पूरा करने के लिए उनके परिवार को अपनी इन्वर्टर की दुकान में स्टॉक का निपटान करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

जब इरफान के परिवार के पास पैसे खत्म हो गएए तो उन्होंने एक मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा.ए.हिंद से संपर्क कियाए जिसके वकीलों ने बिना कोई फीस लिए उनका केस लड़ा.

इरफ़ान ने अल जज़ीरा को बतायाए ष्मुझे पता है कि सरकार उन अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेगी जिन्होंने मुझे मनगढ़ंत आरोपों के तहत गिरफ्तार किया थाए लेकिन कम से कम वे मुझे अपना जीवन फिर से शुरू करने के लिए आर्थिक रूप से मदद कर सकते हैं.

आवाज़ें दबाने का राजनीतिक हथियार

वकील और अधिकार कार्यकर्ता वृंदा ग्रोवर ने अल जज़ीरा को बताया कि यूएपीए का इस्तेमाल ष्राज्य के विचारों का विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार रक्षकों की आवाज़ को दबाने के लिए एक राजनीतिक हथियार के रूप में किया जा रहा है.

उन्होंने कहाए ष्मुसलमानों और कश्मीरियों को आतंकवादी के रूप में बदनाम करने के लिएष् इसका इस्तेमाल भी किया जा रहा है. उन्होंने यूएपीए को ष्बहुत कठोर कानून जो सामान्य आपराधिक कानूनों से अलग हैष् कहा और राज्य को ष्संदिग्धों की स्वतंत्रता को कम करनेष् की अनुमति दी.

ग्रोवर ने कहा कि विशेष रूप से किसी मामले के शुरुआती चरणों में अधिक न्यायिक जांच होनी चाहिएए चाहे पुलिस द्वारा प्रस्तुत तथ्य यूएपीए को लागू करने का वारंट हो या अपराध भारत के दंड संहिता के प्रावधानों के तहत आता हो.

उन्होंने कहा,ष्यूएपीए कार्यकर्ताओंए धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने और लोगों के बीच डर पैदा करने के लिए एक सुविधाजनक उपकरण बन गया है ताकि एक सत्तावादी राज्य के लिए दंडमुक्ति के साथ कार्रवाई करने का तर्क तैयार किया जा सके.

ग्रोवर ने कहा कि अदालतों को यूएपीए से जुड़े विचाराधीन कैदियों को जमानत देनी चाहिए और राज्य को कम समय के भीतर अदालत में अपना मामला साबित करने का निर्देश देना चाहिए.

अल जज़ीरा से बात करते हुएए प्रमुख कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने कहा कि लोगों को लंबे समय तक कैद करने के लिए ष्सरकारों में खुद को इन शक्तियों से लैस करने के लिए एक तरह की आम सहमति है, जहां आरोपियों के लिए ष्प्रक्रिया ही सजा बन जाती है.

मंदर ने कहाए ष्हमें राज्य को इन शक्तियों से लैस होने की इजाजत नहीं देनी चाहिएए जब 100 साल पहले हमारा स्वतंत्रता संग्राम औपनिवेशिक सरकार की इन शक्तियों से लड़ने के आधार पर शुरू हुआ था.
लोगों को झूठे आरोपों में फंसाने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की पुनर्वास नीति और जवाबदेही दोनों होनी चाहिए.

इसी कड़ी में अब अब्दुल करीम टुंडा का मामला भी जुड़ गया है. लोग पूछ रहे हैं कि इसकी जिंदगी के 31 साल कौन लौटाएगा. क्या उन्हें सजा का कोई प्रावधान है जो निर्दाेषों को वर्षों तक जेल में बंद रखने का प्रपंच रचते हैं ?
टुंडा की रिहाई के बाद से इन सवालों पर सोशल मीडिया पर जबर्दस्त बहस चल रही है. इस क्रम में एक्स पर मुस्लिम स्पेस ने लिखा है-‘‘1993 बम ब्लास्ट केस में अब्दुल करीम टुंडा 31 साल के बाद बरी.

अजमेर की टाडा अदालत ने 1993 के सिलसिलेवार बम विस्फोट मामले के कथित मुख्य आरोपी अब्दुल करीम टुंडा को सबूत ना मिलने पर बरी कर दिया है.

अब्दुल करीम टुंडा के वकील शफकतुल्ला सुल्तानी ने कोर्ट के बाहर बयान देते हुए कहा, माननीय अदालत ने अब्दुल करीम टुंडा को सभी आरोपों से बरी कर दिया है. अब्दुल करीम टुंडा के खिलाफ कोई भी मजबूत सबूत पेश करने में नाकाम रही है.

इसी तरह वाजिद खान ने लिखा है-‘‘बेगुनाह होने के बावजूद 31 साल कैद में गुजारे अबदुल्ल करीम टुंडा ने. 31 साल बाद अब्दुल करीम टुंडा सभी आरोपों से अजमेर सेंटर जैल से बरी हो गए है.

1993 सीरियल ब्लाश्स्ट में टुंडा पर मुंबई, लखनऊ, कानपुर, हैदराबाद की ट्रेनों में बम धमाके का आरोप था.
अजमेर टाडा कोर्ट ने सुनाया फैसला.

इस क्रम में वसीम अकरम त्यागी लिखते हैं-‘‘1993 बम धमाकों के मामले में अभियुक्त अब्दुल करीम टुंडा को कोर्ट ने बरी कर दिया है. अब्दुल करीम की गिरफ्तारी के वक्त मीडिया प्रिंट-इलैक्ट्राॅनिक अदालत से पहले ही जज बनकर उन्हें खूंखार आतंकी साबित कर चुके थे. अब अब्दुल करीम टुंडा को कोर्ट ने बरी कर दिया है. अब क्या भारतीय मीडिया अपनी बेशर्मी बेगैरती और मुस्लिम दुश्मनी के लिए माफी मांगेगी? नहीं! क्योंकि बेजमीर लोगों से ऐसी उम्मीद रखना ही बेईमानी है.

अल जजीरा की रिपोर्ट का सार

  • भारत का आतंकवाद विरोधी कानूनः राजनीतिक हथियार के रूप में विवादित
  • 2 प्रतिशत दोषसिद्धि दर के साथ, आतंकवाद विरोधी कानून अधिक राजनीतिक हथियार के रूप में विवादित

आलोचकों का कहना है कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम या यूएपीए का इस्तेमाल कार्यकर्ताओं को चुप कराने और मुसलमानों और कश्मीरियों को आतंकवादी के रूप में बदनाम करने के लिए एक राजनीतिक हथियार के रूप में किया जा रहा है.

मुख्य बिंदु

  • मोहम्मद इरफान उन पांच मुसलमानों में से एक थे, जिन्हें 2012 में महाराष्ट्र पुलिस के आतंकवाद रोधी दस्ते (एटीएस) ने गिरफ्तार किया था.
  • उन पर आरोप था कि वे पाकिस्तान स्थित प्रतिबंधित संगठन लश्कर के लिए काम कर रहे थे.
  • नौ साल बाद, सबूतों के अभाव के कारण उन्हें और उनके सह-आरोपी मोहम्मद इलियास को बरी कर दिया गया.
  • एक अन्य मामले में, बशीर अहमद बाबा को भी 11 साल बाद आरोपों से मुक्त कर दिया गया.
  • कई अन्य कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और छात्रों को भी यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया है.
  • 2016 से 2019 के बीच यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए 5,922 लोगों में से केवल 132 को ही दोषी ठहराया गया, जो कुल गिरफ्तारियों का लगभग 2 प्रतिशत है.

वकील और अधिकार कार्यकर्ता वृंदा ग्रोवर का कहना है कि यूएपीए का इस्तेमाल कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार रक्षकों की आवाज को दबाने के लिए एक राजनीतिक हथियार के रूप में किया जा रहा है.

आलोचना

  • आलोचकों का कहना है कि इस कानून का इस्तेमाल कार्यकर्ताओं, धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने और लोगों में भय पैदा करने के लिए किया जाता है.
  • उनका कहना है कि यूएपीए बहुत कठोर कानून है जो राज्य को संदिग्धों की स्वतंत्रता को सीमित करने की अनुमति देता है.
  • कार्यकर्ताओं का कहना है कि यूएपीए के तहत आरोपों का सामना कर रहे लोगों को जमानत दी जानी चाहिए और राज्य को अदालत में जल्द से जल्द अपना मामला साबित करने का निर्देश दिया जाना चाहिए.

चिंता

  • इस कानून के दुरुपयोग से निर्दोष लोगों को लंबे समय तक जेल में रहना पड़ सकता है.
  • इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हो सकता है.
  • गलत आरोपों में फंसाने वाले अधिकारियों की जवाबदेही तय होनी चाहिए.