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विश्लेषक सिराज ने मुसलमानों की बदहाली के लिए मौलवी और उत्तर प्रदेश-बिहार के राजनेताओं को क्यों जिम्मेदार ठहराया ?

मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली

आजादी के बाद मुसलमानों का पूरा संघर्ष अपनी पहचान के इर्द-गिर्द घूमता रहा है. यह कहना है दक्षिण भारत के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक मकबूल ए. सिराज का. उन्हांेने एक तरह से कौम की बदहाली के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश के राजनेताओं एवं मौलवियों को जिम्मेदार ठहराया.सेराज कहते हैं कि मुसलमानों की प्रतिक्रिया की वजह से बहुसंख्यकवादी ताकतों को आगे बढ़ने का मौका मिला और वे अब यह देखना चाहते हैं कि मुस्लिम नेतृत्व खूनी प्रतिशोध को भड़काने के लिए क्या-क्या कर सकता है.

सेराज ने हैदराबाद के मीडिया हाउस सियासत डॉट कॉम से बातचीत मंे कहा, 1986 के बाद से हमने शाह बानो का मामला उठाया, सलमान रुश्दी और तसलीमा नसरीन की किताबों पर प्रतिबंध, तीन तलाक, बाबरी मस्जिद, मिलादुन नबी की छुट्टी और ऐसे ही अन्य मुद्दे उठाते रहे.

उन्होंने अप्रत्यक्ष तौर पर मौलवी, यूपी और बिहार के राजनेताओं पर उंगली उठाते हुए कहा कि वे मुस्लिम अस्तित्व की जड़ हैं. 1960 और 1970 के दशक में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र, उर्दू और मुस्लिम पर्सनल लॉ के अल्पसंख्यक दर्जे के इर्द-गिर्द राजनीति घूमती रही.

उन्होंने कहा कि उनका मानना ​​​​है कि मौलवी कच्चे जुनून को भड़का सकते हैं लेकिन समाज की समकालीन चुनौतियों से निपटने के लिए रचनात्मक प्रवृत्ति को सक्रिय नहीं कर सकते. इन राज्यों यानी यूपी एवं बिहार में मुसलमान बेहद पिछड़े हुए हैं. अपने सीमित भूगोल और समाज से परे देखने में असमर्थ हैं. भारत बहुत बड़ा है और अधिक अवसर प्रदान करता है. सभी गैर-मुस्लिम पक्षपातपूर्ण तरीके से नहीं सोचते हैं, जैसा भाजपा व आरएसएस भारत की कल्पना करते हैं.

उन्होंने कहा,मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए. पारंपरिक विवादांे से बचना चाहिए. महिलाओं को शिक्षित और सशक्त बनाने, मदरसा पाठ्यक्रम का आधुनिकीकरण करने, मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार की पहल करने, उद्यमिता को बढ़ावा देने, ज्ञान निर्माण में निवेश करने, प्रचार और संरक्षण करने पर जोर देना चाहिए. इसमें युवाओं के प्रमुख मुददे भी शामिल किए जाएं.

उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि बंगलौर,कर्नाटक में अल-अमीन आंदोलन ने कौम की सेवा करते हुए लगभग 55 वर्ष पूरे कर लिए हैं. आज शहर में इसके 450 से अधिक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल हैं, जो मुसलमानों द्वारा संचालित किए जाते हैं. इनमें से 50 ए ग्रेड स्कूल हैं, जहां 70 प्रतिशत छात्र और शिक्षक गैर-मुस्लिम हैं. वे लगभग 25-डिग्री कॉलेज, तीन विश्वविद्यालय (जिनमें से कोई भी अल्पसंख्यक टैग नहीं रखता है), छह मेडिकल और 13 (शायद अब और) इंजीनियरिंग कॉलेज, अनगिनत शिक्षक प्रशिक्षण, नर्सिंग और फार्मेसी कॉलेज और पॉलिटेक्निक चलाते हैं.

तमिलनाडु का मुसलमान और भी प्रगतिशील है. उन्हांेने बताया कि उनके अब्बा मोहम्मडन कॉलेज, मद्रास (लगभग 1936) से स्नातक हैं. यह कॉलेज 1905 में स्थापित किया गया था. आज इसे कायद-ए-मिल्लत (मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद इस्माइल के बाद) कॉलेज के रूप में फिर से नाम दिया गया है. यह विशेष रूप से लड़कियों का कॉलेज है. वनियामबादी में इस्लामिया कॉलेज (चेन्नई के पश्चिम में 200 किलोमीटर) 1919 में स्थापित हुआ था. यह एक स्नातकोत्तर कॉलेज है जिसमें 80 प्रतिशत छात्र गैर-मुस्लिम हैं. तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के लगभग हर जिले में पर्याप्त संख्या में मुस्लिम कॉलेज और स्कूल और अन्य संस्थान जैसे पुस्तकालय, अस्पताल, नर्सिंग होम, एम्बुलेंस सेवाएं, मुफ्त रसोई, छात्रवृत्ति बंदोबस्ती आदि हैं.

प्रो. मोअज्जम संस्थानों को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. संस्थान को स्थानीय फोकस की जरूरत है. वह कहते हैंं, कोलकाता के नूरुल इस्लाम अल-अमीन मिशन, अक्कलकुवा (महाराष्ट्र) में वस्तानवी साहब की संस्थाएं टीकेएम संस्थान (जो अब कोट्टायम में एक विश्वविद्यालय है), शाहीन ग्रुप अॉफ इंस्टीट्यूशंस, बीदर, कर्नाटक (इस साल यहां से 450 छात्रों ने एनईईटी परीक्षा उत्तीर्ण की और कर्नाटक के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस सीटों के लिए पात्र घोषित किए गए), हैदराबाद में सुल्तानुल उलूम एजुकेशन सोसाइटी द्वारा कामय पश्चिम बंगाल में पूर्व आईपीएस अधिकारी नजरूल इस्लाम द्वारा मुर्शिदाबाद के डोमकल में स्थापित कॉलेज और स्कूल आदि. मुसलमानों के लिए यह कुछ मॉडल हैं.

सेराज का मानना है कि मुसलमानों को राजनीतिक मुद्दों को एक दशक तक ठंडे बस्ते में डाल देना चाहिए. जब तक कि आधुनिक दृष्टि और कौशल वाली नई पीढ़ी अस्तित्व में न आ जाए, ऐसे मुददे उठाने से बचना चाहिए. उन्हांेने आरोप लगाया कि दिल्ली के तथाकथित मुस्लिम नेतृत्व पर हावी यूपी और बिहार के मौलवी आधुनिक चुनौतियों का सामना नहीं कर पाते. उनके अपने मदरसे (बल्कि पैतृक संपत्ति) कुप्रबंधन के बड़े उदाहरण हैं.