गज्वा ए हिंद पर अमीर खुसरो फाउंडेशन में बहस, वक्त की बर्बादी
मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली
गज्वा ए हिंद पर बहस, समय की बर्बादी से ज्यादा कुछ नहीं. इसकी वजह यह है कि अभी रोटी, कपड़ा, मकान, नौकरी, गरीबी पर चर्चा ज्यादा जरूरी है. गज्वा ए हिंद पर वही लोग गपबाजी में लगे हैं, जो खाली हैं. उनके पास कोई काम नहीं है या बेकार की बहस में कौम को उलझाना चाहते हैं. ऐसे ही खाली लोगों में कट्टरपंथी संगठन भी शुमार हैं.
मगर खाली लोगों की कतार में नई दिल्ली का एक सामाजिक संगठन खुसरो फाउंडेशन भी आ गया है. इस संगठन ने न केवल ‘क्या है गज्वा ए हिंद की हकीकत’ नामक पुस्तक प्रकाशित किया. रविवार को इंडियान इंटरनेशनल सेंटर के एनएक्स में पुस्तक के विमोचन के बहाने मुस्लिम बुद्धिजीवियों और उलेमा का जमघट भी लगाया.
इस दौरान गज्वा ए हिंद पर चर्चा हुई.इस चर्चा में मुख्य अतिथि की हैसियत से शामिल पूर्व पत्रकार एवं पूर्व विदेश मंत्री एमजे अकबर, मौलाना कल्बे रूशैद, डाॅक्टर वारिस मजहरी, मुंबई की डाॅ जीनत शौकत अली, मुफ्ती अतहर कुरैशी ने एक सुर से कहा कि यह हदीस गलत है. इस्लाम मुहब्बत का पैगाम देता है. गज्वा ए हिंद जैसे हदीस में कोई दम नहीं.
सवाल उठता है कि हदीस यदि बकवास है तो गड़े मुर्दे उखाड़ने के पीछे क्या उद्देश्य है ? सोशल मीडिया पर यदि कुछ कट्टरवादी इसकी चर्चा न छेड़ें तो कोई इसपर बात करना भी पसंद नहीं करेगा.
मजेदार बात है कि वक्ताओं में से एक ने बाद में मीडिया से बातचीत में कहा कि ‘वीआईपी’ के बीच गज्वा ए हिंद पर बहस का कोई मतलब नहीं. इसके नाम पर गरीब और कम पढ़े लोगों को वरगलाया जाता है. यदि गज्वा ए हिंद वास्तव में चर्चा का विषय है तो गोष्ठी की शक्ल मंे इसे स्कूल, मदरसों, पाठशालाओं तक ले जाना चाहिए. किताब छापने से क्या होगा ?
देवबंद ने इसपर कई साल पहले फतवा दिया था. हिंदू-मुस्लिम के नाम पर नफरत फैलाने वाले किसी साहब ने देवबंद की साइट पर पड़ा यह फतवा देखा तो शिकवा-शिकायत शुरू कर दी. जिसका कोई वजूद नही, उसपर टीवी डिबेट हो रहे हैं. खुसरो फाउंडेशन भी यही कर रहा है. इस कार्यक्रम में संस्थान की ओर से ऐलान किया गया कि इसपर कई भाषाओं में और किताबें छापी जाएंगी.
कार्यक्रम का सबसे अफसोसनाक पहलू यह रहा कि गज्वा ए हिंद पर चर्चा करने वालों में से किसी ने यह नहीं कहा कि जिसका वजूद नहीं, उसपर बहस करने की बजाए मुसलमानों की मौजूदा परेशानियां दूर कैसे हों ? इसपर चर्चा की जानी चाहिए. महफिल में ‘क्रीम’ समझे जाने वाले लोगों के होने के बावजूद दर्शक दीर्घा से भी यह मांग नहीं उठी. ऐसे में समझा जा सकता है कि मुस्लिम बुद्धिजीवी कैसे देश के मुसलमानांे को बेकार की बहस में उलझाने की कोशिश कर रहे हैं. यदि गज्वा ए हिंद के नाम पर कहीं मारकाट मची होती तब इसे अहमियत देना वाजिब था. अभी तो इसकी कोई रेलिवेंसी ही नहीं है.