कयादत की खामोशी: मुसलमानों के रहनुमा आखिर कब बोलेंगे?
मुस्लिम नाउ विशेष
देश की सबसे बड़ी आबादी में से एक—मुसलमान—आज भी नेतृत्व संकट से गुजर रही है। कयादत उन्हीं लोगों के हाथ में है जो या तो बहुत बुजुर्ग हो चुके हैं या फिर निष्क्रिय। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्र के नाम संबोधन हुए कई घंटे बीत चुके हैं। उन्होंने पहलगाम आतंकी हमले, ‘ऑपरेशन सिंदूर’, पाकिस्तान और विदेश नीति पर तकरीबन बीस मिनट गंभीर बातें रखीं। लेकिन मुस्लिम समाज की ओर से अब तक कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं आई।
न मदनी ने कुछ कहा, न चिश्ती ने, न ओवैसी से कोई तगड़ी आवाज निकली। जो लोग मुसलमानों की रहनुमाई का दावा करते हैं, वे मौन हैं। न कोई साझा बयान, न कोई संवाद। ऐसा लगता है जैसे पूरे नेतृत्व पर खामोशी तारी है।
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कौन हैं कर्नल सोफिया कुरैशी, जो ऑपरेशन सिंदूर की ब्रिफिंग के बाद सोशल मीडिया पर छा गई ?
जब देश किसी संकट या निर्णायक मोड़ पर खड़ा हो, तो जिम्मेदारी बनती है कि मुसलमानों के रहनुमा बताएं कि वे कहां खड़े हैं। चाहे आप किसी बात से इत्तेफाक रखते हों या असहमति हो, इस्लाम में स्पष्ट है कि अच्छे के साथ खड़े होना है और बुराई का विरोध करना है। लेकिन हमारे रहनुमा हर बार इसी बुनियादी उसूल को भुला देते हैं।
प्रधानमंत्री ने ऑपरेशन सिंदूर में आतंकवाद के खिलाफ बड़ी कार्रवाई की बात कही। सैकड़ों आतंकियों के खात्मे का दावा किया गया, लेकिन ये नहीं बताया कि पहलगाम हमले के पीछे कौन था? क्या वो अब भी जीवित हैं? कराची आर्मी बेस पर हुई कार्रवाई के अलावा बाकी आतंकी ठिकानों का क्या? अगर ऑपरेशन अधूरा है तो साफ क्यों नहीं कहा गया?

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप ने पहले खुद को इस मामले से अलग रखा था, फिर अचानक उनकी दिलचस्पी क्यों बढ़ गई? ये तमाम सवाल वाजिब हैं और मुस्लिम रहनुमा चाहें तो राष्ट्र के साथ खड़े रहते हुए ये सवाल भी पूछ सकते थे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
अगर मान भी लें कि यह समय सवाल उठाने का नहीं था, तो कम से कम सरकार और सेना के साथ खड़े होने का सबूत तो दिया जा सकता था। पाकिस्तान में सीजफायर को जीत बताकर जश्न मनाया जा रहा है, मिठाइयां बांटी जा रही हैं। अगर हमारी फौज ने सचमुच बड़ी कामयाबी हासिल की है तो हम क्यों नहीं जश्न मना रहे? मुसलमानों की ओर से कोई संगठन क्यों नहीं सामने आया?
ऑपरेशन सिंदूर के दौरान देश के आम मुसलमान बिना किसी नेतृत्व के खुद ही देश के साथ खड़े नजर आए। लेकिन अफसोस कि रहनुमा इसे भी दिशा नहीं दे सके, इसे एकजुटता और सकारात्मक छवि में नहीं बदल सके।
यहां तक कि कर्नाल सोफिया कुरैशी जैसी महिलाओं की उपलब्धियों पर भी किसी मुस्लिम संगठन ने उत्साह नहीं दिखाया। क्या वक्फ की संपत्तियां, तीन तलाक, मंदिर-मस्जिद ही हमारे मुद्दे रह गए हैं? क्या हमारा काम हर वक्त नाराज रहने का रह गया है?
आजाद भारत में मुसलमानों के योगदान को बार-बार गिनाने से अब बात नहीं बनेगी। आज की जरूरत है कि हम वक़्त के साथ खड़े दिखाई दें। अगर अब भी हमारे नेतृत्वकर्ता निर्णय लेने में देरी कर रहे हैं या उम्र के कारण सक्रिय नहीं रह पा रहे हैं, तो अब समय है सेकेंड लाइन खड़ी करने का।
बुजुर्गों की समझ और युवाओं की तेजी मिलकर मुस्लिम समाज की एक नई छवि गढ़ सकते हैं—जो न सिर्फ वक्त की मांग है बल्कि हमारी कौमी ज़िम्मेदारी भी। वरना आने वाली नस्लें भी हमारी खामोशी से ही सीखेंगी, और वह सबक कोई अच्छा नहीं होगा।