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ऑपरेशन सिंदूर पर सियासत: क्या आतंकवाद के खिलाफ जंग को राजनीतिक रंग देना सही है?

मुस्लिम नाउ डेस्क

हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत सरकार की ओर से पाकिस्तान को सीधे तौर पर कटघरे में खड़ा करते हुए जो जवाबी रणनीति बनाई गई, उसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ नाम दिया गया। इस ऑपरेशन की समयबद्धता, प्रभावशीलता और वैश्विक मंचों पर भारत की कूटनीतिक सक्रियता के साथ इसकी घोषणात्मक राजनीति ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। इन सवालों का उत्तर ढूंढना ज़रूरी है — क्या यह समय ऑपरेशन सिंदूर को प्रचारित करने का था? या इस पर राजनीतिक बयानबाज़ी से बचते हुए इसे एक रणनीतिक चुप्पी के साथ आगे बढ़ाया जाना चाहिए था?

वैश्विक मंच पर भारत की गंभीर कूटनीति

एक ओर जब भारत के सात प्रतिनिधिमंडल विश्व के विभिन्न देशों में जाकर यह संदेश दे रहे हैं कि पाकिस्तान आतंकवाद का पालक और पोषक बना हुआ है, वहीं दूसरी ओर देश के भीतर उसी मुद्दे को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है। विदेशों में भारत यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि अगर पाकिस्तान की ज़मीन से पैदा हो रहा आतंक नहीं रोका गया, तो केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया इसकी कीमत चुकाएगी।

ऐसे समय में यदि किसी राजनीतिक दल या नेता द्वारा “हमारी नसों में खून नहीं, सिंदूर दौड़ रहा है” जैसे युद्धोन्मादी संवादों के ज़रिए ऑपरेशन सिंदूर का महिमामंडन किया जाए, और उसे सेना की बजाय किसी विशेष नेता के नाम से जोड़ा जाए — तो क्या यह विदेशों में भारत की गंभीर छवि को हल्का नहीं कर देता?

सैन्य कार्रवाई या राजनीतिक ब्रांडिंग?

सेना के अभियानों को राजनीतिक चश्मे से देखना, खासकर तब जब चुनाव नज़दीक नहीं हैं, यह दर्शाता है कि किस तरह आतंकवाद जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। बड़े नेताओं द्वारा सैनिक वर्दी पहनकर फोटो शूट कराना, या ऑपरेशन सिंदूर की ‘सफलता’ का श्रेय सैन्य रणनीति की बजाय पार्टी नेतृत्व को देना, सवाल खड़े करता है — क्या हम आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को राजनीतिक ब्रांड में बदल रहे हैं?

देश के भीतर जनचेतना की कमी

आश्चर्य की बात है कि जहां एक ओर हमारा विदेश मंत्रालय पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर घेरने में व्यस्त है, वहीं देश के भीतर जनता का एक बड़ा वर्ग अब भी पाकिस्तानी सीरियल, संगीत और वस्त्रों के प्रति आकर्षित है। देश में पूजा मल्होत्रा जैसे ‘पाकिस्तानी एजेंट’ बनने की घटनाएं इसी सामाजिक भ्रम की देन हैं। यह स्पष्ट है कि केवल सैन्य कार्रवाई पर्याप्त नहीं है — हमें मानसिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी एक संगठित जागरूकता अभियान की जरूरत है।

क्या करना चाहिए था?

इस समय सबसे ज़रूरी यह था कि:

  • ऑपरेशन सिंदूर को सेना की रणनीतिक उपलब्धि के रूप में सम्मानजनक चुप्पी के साथ प्रस्तुत किया जाता।
  • देश के नागरिकों को समझाया जाता कि पाकिस्तान किस प्रकार शांति में बाधा है, और कैसे वह भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है।
  • स्कूल-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में सेमिनार और कार्यक्रम आयोजित कर यह बताया जाता कि विदेशों में प्रतिनिधिमंडल भेजने का क्या उद्देश्य है और उससे देश को क्या लाभ हो सकता है।
  • मीडिया और राजनीतिक दलों को चाहिए था कि वह ऐसे संवेदनशील विषयों को चुनावी हथियार के रूप में प्रयोग करने से बचते।

क्या हमने कुछ सीखा?

दुर्भाग्य से, ऑपरेशन सिंदूर के बाद भी ज़मीन पर कुछ खास बदलाव नहीं दिख रहे। न हमारी राजनीतिक भाषा बदली, न पाकिस्तान को लेकर हमारी संस्कृति में कोई स्पष्टता आई। आज भी सोशल मीडिया पर पाकिस्तानी कलाकारों की फैन फॉलोइंग कायम है, और बाजार में पाकिस्तानी फैशन की मांग बनी हुई है। हमारे देश की सियासत, हमारी सरकार और हम — तीनों कहीं न कहीं पहले जैसे ही हैं।

निष्कर्ष

आतंकवाद के खिलाफ जंग केवल सीमाओं पर नहीं लड़ी जाती — यह एक मानसिक और वैचारिक युद्ध भी है। जब तक हम देश के नागरिकों के भीतर यह बोध नहीं जगाते कि हमारा पड़ोसी देश शांति का दुश्मन है, तब तक केवल सैन्य अभियानों से कुछ नहीं बदलेगा।

ऑपरेशन सिंदूर यदि भारत का जवाब है, तो उसका प्रचार युद्ध की भावना से नहीं, बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा और गरिमा को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए। और सबसे बड़ी बात — इसे किसी एक नेता या दल का नहीं, बल्कि पूरे देश का सामूहिक उत्तर माना जाना चाहिए।

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