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यूपी चुनावः राजनीतिक उबाल के बीच मुसलमानों की भयानक चुप्पी

मुस्लिम नाउ ब्यूरो,लखनऊ
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए सपा-आरएलडी और कांग्रेस द्वारा पहले दौर के उम्मीदवारों की घोषणा कर दी गई है. भाजपा भी 170 सीटों पर नामों का ऐलान करने जा रही है. ऐसे में यूवी में चुनावी हलचल तेज होना लाजमी है. मगर दूसरी तरफ मुस्लिम वोटर ने डरवनी खामोशी अख्तियार कर रखी है. वैसे ही खामोशी जैसे पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान देखने को मिली थी.

कहीं से कोई संकेत नहीं मिल रहा कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों का उंट किस करवट बैठने वाला है.उत्तर प्रदेश के चुप्पी साधे मुस्लिम मतदाताओं से इतर वोट बैंक की राजनीतिक गठजोड़ से पैदा हुई सियासत में पूरे उबाल पर है. इसके विपरीत सूबे की सड़कों पर किसी भी मुसलमान से बात करें. राजनीतिक संभावनाओं पर जवाब में खामोशी ही मिलेगी.

धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के डर से, अधिकांश राजनीतिक दल भी मुस्लिम मसलों पर बात करने से कतरा रहे हैं. मुसलमान खुद कम महत्वपूर्ण रहना पसंद कर रहा है, क्योंकि वे जानते हैं कि कोई भी ‘तुष्टिकरण‘ का मुद्दा उठाकर उनके हित में हानिकारक साबित हो सकता है.

योगी आदित्यनाथ ने जब 2017 में उत्तर प्रदेश में सत्ता की बागडोर संभाली, तो उन्होंने इस धारणा को तोड़ दिया कि मुसलमान ही उत्तर प्रदेश में सरकार बना सकते हैं. इसलिए मुसलमानों को पंगु बनाने के लिए उन्होंने एक व्यापक हिंदू लामबंदी को चुना.

गोहत्या पर प्रतिबंध

उन्होंने उन नीतियों का अनुसरण किया जो मुसलमानों के विचारों से अलग थीं. उनमें गोहत्या और ‘अजान‘ के लिए लाउडस्पीकरों के उपयोग पर प्रतिबंध, आदि शामिल हैं. ट्रिपल तलाक पर प्रतिबंध ने उन मुस्लिम पुरुषों को नाराज किया है जो महसूस करते हैं कि यह शरिया कानूनों में घुसपैठ है. महिलाएं खुश होने के बावजूद महसूस कर रही हैं कि कानून ने अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं की है.

युवा स्नातक शाहीन कहते हैं,“वित्तीय स्वतंत्रता के बिना हम इस मुद्दे पर पुरुषों को कैसे ले सकते हैं. अगर हम अपने और अपने बच्चों के लिए परिवार पर निर्भर हैं, तो हम उनके खिलाफ नहीं जा सकते. वह कहते हैं, उत्तर प्रदेश में गो मांस जैसे मुद्दों पर मुसलमानों पर ‘हमले‘ बढ़े, सीएए के विरोध और लव जिहाद पर कानून ने मुस्लिम युवाओं के ‘उत्पीड़न‘ के लिए द्वार खोले हैं.

संक्षेप में, योगी आदित्यनाथ ने 20 प्रतिशत मुसलमानों को ‘रक्षात्मक‘ स्थिति में पहुंचा दिया है. योगी ने उन्हें एक तरह से समझाने की कोशिश की है कि अल्पसंख्यक समुदाय के बिना न केवल सत्ता हासिल की जा सकती है, बरकरार भी रखी जा सकती है. योगी का हालिया नारा,‘‘80 प्रतिशत बनाम 20 प्रतिशत‘‘ भी उनकी सोच और रणनीति की हिस्सा है. यूपी में तकरीबन 22 प्रतिशत मुसलमान हैं.

लखनऊ में शिया डिग्री कॉलेज के एक वरिष्ठ संकाय सदस्य ने कहा,“मुसलमानों को योगी शासन में दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा महसूस कराया गया. उन्होंने पूरे समुदाय को एक राष्ट्र-विरोधी-एक लेबल के तहत ब्रांडेड किया. यह हमें आहत करता है. अगर किसी को गलत करने की सजा दी जाती है तो हमने इसका कभी विरोध नहीं किया, लेकिन आप पूरे समुदाय को गलत नहीं कह सकते. पिछले पांच वर्षों में, ऐसा लगता है कि हर कोई दक्षिणपंथी पुलिस में बदल गया है. मुसलमानों को प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया.

योगी आदित्यनाथ ने जाति के आधार पर हिंदुओं के बीच जो विशाल अनुयायी बनाया है, उसने गैर-भाजपा दलों को भी मुस्लिम मुद्दे पर सतर्क किया है. कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने कहा, ‘‘हम जानते हैं कि बीजेपी मुसलमानों पर एक शब्द बोलने का इंतजार कर रही है और फिर वे धार्मिक आधार पर चुनाव का ध्रुवीकरण करने के लिए पूरी ताकत लगा देंगे.‘‘

सूत्रों के मुताबिक, पार्टियां इस बार ज्यादा मुस्लिमों को मैदान में उतारने का जोखिम नहीं लेंगी. ऐसा प्रयोग तमाम विपक्षी दलों ने बिहार चुनाव में किया था.

यूपी में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व

उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में ऐतिहासिक रूप से उतार-चढ़ाव आया है. 1970 और 1980 के दशक में समाजवादी दलों के उदय और कांग्रेस के पतन ने पहली बार विधानसभा में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में वृद्धि देखी, जो 1967 में 6.6 प्रतिशत से 1985 में 12 प्रतिशत हो गई.

1980 के दशक के अंत में राज्य में पहली बार भाजपा के उदय ने इस प्रतिशत को 1991 में 5.5 प्रतिशत तक ला दिया. इस अवधि में उम्मीदवारों के रूप में चुनावों में मुसलमानों की कुल भागीदारी में भी कमी आई है.

प्रतिनिधित्व में वृद्धि का दूसरा चरण


1991 के बाद शुरू हुआ. 2012 में समाप्त हुआ, जब मुस्लिम उम्मीदवारों ने पहली बार निकट-जनसांख्यिकीय अनुपात हासिल करते हुए 17 प्रतिशत विधानसभा सीटें जीतीं. 2000 में उत्तराखंड के बंटवारे के बाद उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व का प्रतिशत बढ़ाने में योगदान दिया.

2017 में भाजपा की जोरदार जीत ने इस प्रवृत्ति को वापस 1991 के स्तर पर पहुंचा दिया. मात्र 23 मुस्लिम चुने गए, जबकि पिछले चुनावों में 68 तक मुस्लिम एमएलए के संख्या पहुंच गई थी.

हाशिए पर धकेलने की कोशिश

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली ने कहा, ‘‘यह केवल संख्या के बारे में नहीं है. समुदाय के प्रतिनिधित्व में गिरावट का मतलब नीति-निर्माण में इसकी लगभग कोई भूमिका नहीं है, जो राज्य की आबादी के लगभग पांचवें हिस्से के लिए अच्छा नहीं है.‘‘

जैसे ही चुनाव प्रक्रिया शुरू हुई, उत्तर प्रदेश के मुसलमान ऐसी कोई ‘गलती‘ नहीं करना चाहते जिससे उनके वोटों में विभाजन हो जाए.हालांकि वह नहीं बता पाए कि समुदाय कैसे सुनिश्चित करेगा कि उनके वोटों का बंटवारा न हो.

दारुल उलूम देवबंद के एक वरिष्ठ मौलवी ने कहा, ‘‘बीजेपी को हराना प्रमुख कारक है, हालांकि अन्य कारक भी मायने रखते हैं जैसे कि उम्मीदवार, पार्टी, ग्राम स्तर की गतिशीलता और स्थानीय प्रतिद्वंद्विता.‘‘ “योगी सरकार ने मुसलमानों को पहले जैसा निशाना बनाया है. आजम खान से लेकर मुख्तार अंसारी को सियासी निशाना बनाया गया. इन्ही माहौल के बीच आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड के एक सदस्य ने ओवैसी से अपील की कि वे ज्यादा उम्मीदवार उतार कर यूपी में मुस्लिम मतदाताओं में बिखराव पैदा न करें.