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क्या सरकार और अदालतें मुसलमानों के भरोसे लायक नहीं रहीं ?

मुस्लिम नाउ विशेष

क्या सरकार और अदालतें मुसलमानों के भरोसे लायक नहीं रहीं ? यह बड़ा सवाल है. पिछले एक दशक में अदालतों एवं सरकारों का मुसलमानों के प्रति जैसा रवैया रहा, उससे देश के बड़े अल्पसंख्यक वर्गं के बीच यह अहम सवाल तेजी से गूंजने लगा है, जिसकी आवाज अब दूर से सुनाई देने लगी है.

नूंह हिंसा, हल्द्वानी की घटना, कुछ मुस्लिम संगठनों और मुल्क के सेक्युलर समाज के हालिया बयानों से लगभग यह धारणा पुख्ता हो चुकी है कि सरकार और अदालतें केवल एक समुदाय विशेष की सुनती हैं. देश के चर्चित वकील प्रशांत भूषण अपने एक इंटरव्यू में सुप्रीम कोर्ट पर निशाना साधते हुए पूछते हैं कि आखिर अदालतें एक पक्ष में ही फैसला क्यों सुनाती हैं ?

प्रशांत भूषण सहित अन्य वरिष्ठ वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट के जज पर भगवा कपड़ा पहनकर मंदिर जाने और भगवा झंडा को एकता का प्रीतक बताने पर भी गहरा ऐतराज जताया है.एनडीटीवी इंडिया से निकले कुछ साथियों ने अपने ‘रेड माइक’ के कार्यक्रम में कहा है कि हल्द्वानी में जो कुछ हुआ वह ज्ञानवापी मस्जिद के प्रति कोर्ट के रवैये से उपजे हताशा का परिणाम है.

मौजूदा सरकार ने पिछले एक दशक में मुसलमानों को लेकर जितने फैसले किए या ऐसे मामले अदालतों में गए, अधिकांश उनके पक्ष में नहीं थे. एक दिन पहले यूपी कोर्ट ने 53 साल पुराने बदरुद्दीन शाह दरगाह मामले में भी मुसलमानों के विरूद्ध फैसला सुनाया है. ज्ञानवापी मस्जिद मामला तो इस कड़ी की प्राकाष्ठा माना जा रहा है.अदालतों की नजरों में वर्शिप 1991 की कोई अहमियत नहीं रही.

मुसलमानों के बीच पिछले एक दशक में यह समझ मजबूत हुई है कि इस सरकार में उनकी नहीं सुनी जाएगी, न ही अदालत उनके हक में फैसला देंगी. आरोप है कि बिलकिस बानो मामले में भी अदालत ने फैसला सुनाने में बेवजह देरी की. कुछ दिनों पहले नूंह में भयंकर हिंसा इसलिए हुई कि कुछ विवादास्पद लोग खुलेआम सोशल मीडिया पर मुसलमानों को गाली दे रहे थे. मगर पुलिस प्रशासन ने समय रहते उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की.

परिणामस्वरूप जैसे ही एक धार्मिक जुलूस में उन विवादास्पद लोगों की मौजूदगी की खबर फैली लोग भड़क उठे. ऐसे मामले में जब शासन-प्रशासन फंसने लगता है तो किसी को मास्टरमाइंड बताकर उसके विरूद्ध इतनी धाराएं लाद देता है ताकि उनकी आधी जिंदगी जेल में ही कटे. सीएए, एनआरसी के आंदोलन कारियों के साथ भी यही हो रहा है.

हल्द्वानी के मामले में भी नूंह जैसा ही हुआ. स्थानीय विधायक का कहना है कि अदालत ने शासन-प्रशासन को पुरानी मस्जिद-मदरसे पर कार्रवाई करने के लिए 14 फरवरी तक रोक रखा था, पर प्रशासन मनमानी पर उतर आया. ‘ जब सईयां भईल कोतवाल’ की तर्ज पर इसके कारिंदे मस्जिद-मदरसा तोड़ने जेसीबी लेकर पहुंच गए. ‘ रेड माइक’ के संकेत उपाध्याय कहते हैं कि इसके लिए तैयारी भी पूरी नहीं थी.

उनके अनुसार, अदालत का फैसला आने के बाद प्रशासन ने जब मस्जिद-मदरसा सील किया, तब कोई विरोध नहीं हुआ. इसके बावजूद बिना स्थानीय मुस्लिम रहनुमाओं को विश्वास में लिए मजहबी इदारे पर बुल्डोजर चला दिया गया, जिससे लोग भड़क गए. उत्तराखंड में यूसीसी कानून लाने में भी मनमानी की गई.

आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड तो खुलेआम कहता है कि अदालतें अब भरोसे लायक नहीं रहीं.  जमाअत इस्लामी हिंद ने भी मुसलमानों से ऐसी चुनौतियों के लिए तैयार रहने का आह्वान किया है.

ऐसे बयान यह बताते हैं कि मुसलमानों के बीच फैला असंतोष कभी भी फूट सकता है. रेड माइक के एक इंटरव्यू में पूर्व एलजी नजीब जंग कहते हैं कि मुसलमानों का अदालतों पर से भरोसा उठ चुका है़. हिंदू संगठन एक हजार मस्जिद पर दावा ठोंक रहे हैं और प्रधानमंत्री चुप्पी साधे हुए हैं. एक्स पर उस्मान ने बीजेपी नेता केएस ईश्वरप्पा का एक बयान साझा किया है,

जिसमें कहा गया है- ‘मुसलमानों मस्जिदें खाली दर दो, वरना कितने मारे जाओगे, हम नहीं जानते.’ इस खुल्लम-खुल्ला धमकी पर इस शख्स के खिलाफ न तो पार्टी की ओर से कार्रवाई की खबर है और नहीं अदालतों, सरकार, प्रशासन ने कार्रवाई करना जरूरी समझौ. दूसरी तरफ ऐसी बातें यदि कोई मुसलमान कह दे तो तुरंत उसका मकान दुकान ढहाने बुलडोजर भेज दिया जाता है.

सरकार और अदालत के खिलाफ अपना असंतोष प्रकट करने के लिए जब तौकीर रजा ने बरैली में जुलूस निकाला तो तुरंत उनके रिश्तेदारों की दुकानों को अवैध बताकर ढहाने के लिए बुलडोजर भेज दिया गया. इससे पहले प्रशासन को उसके अवैध होने की बात याद नहीं आई.

ये सब छोटे-छोटे उदाहरण हैं. पिछले एक दशक से एक खास संगठन का मुसलमानों के खिलाफ ‘सांस्कृतिक युद्ध’ जारी है. सड़कों, शहरों और स्टेशानों के नाम इसी कड़ी का हिस्सा हैं. राम मंदिर का निर्णय, तीन तलाक, अनुच्छेद 370, शादी की उम्र सीमा, यह कुछ उदाहरण हैं, जो कहीं न कहीं सांस्कृतिक युद्ध की ओर इशारा करते हैं. सियासत से मुसलमानों को दरकिनार करना, अल्पसंख्यक मंत्रालय को मुसलमानों से दूर रखना, अल्पसंख्यकों के वजीफे में कटौती, सुधार के नाम पर मदरसों के खिलाफ कार्रवाई, वक्फ संपत्ति पर उंगली उठाना, सभी सांस्कृतिक युद्ध का हिस्सा माना जा रहा है.अभी पांच भारत रत्न सम्मान बांटे गए.उसमें से एक भी मुसलमान नहीं था, क्यों ? जाहिर है उन्हें अहमियत नहीं देना है.

जाहिर है यह युद्ध देश पर एक खास रंग थोपने की कोशिश है. 26 जनवरी से पहले छत्तों पर एक खास रंग के झंडे की बाढ़ का क्या अर्थ निकाला जाए ? भारत दुनिया का सबसे बड़ा सेक्युलर कंट्री है. मगर अब इस पर सवाल उठ रहे हैं. कुछ जमुरे टाइप के मुस्लिम चोगाधारियों को आगे कर ऐसा इंप्रेशन छोड़ने की छदम कोशिशें हो रही है कि देश में सब कुछ पहले जैसा है.

यदि सब कुछ पहले जैसा है तो देश में ऐसा क्या चल रहा है कि खुले आम अदालतों एवं सरकारों पर सवाल उठाए जा रहे हैं. यदि कहीं गड़बड़ है तो वक्त रहते इसमें सुधार की जरूरत है. तीस करोड़ आबादी यूं ही सड़कों पर फिरते रहेगी तो देश का विकास कैसे संभव है ? देश को बांटने की साजिश को नाकाम करना होगा और न्याय प्रणाली को विश्वास जीतना होगा.