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Assembly Elections Result 2022 : असदुद्दीन ओवैसी मुसलमानों के मसीहा या पनौती !

मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली

देश में मुसलमानों और सेक्युलर लोगों को बांटने के षड़यंत्र के बीच चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी और उनकी पार्टी एआईएमआईएम की भूमिका एक बार फिर सवालों के घेरेमें हैं. उनसे पूछा जा रहा है कि क्या वो मुसलमानों और सेक्युलर वोटों के लिए भस्मासुर साबित हो रहे हैं या चुनाव में उतरते ही इस लिए हैं ताकि किसी खास दल को फायदा पहुंचाया जाए ?

ओवैसी पर भारतीय जनता पार्टी के एजेंट के तौर पर   काम करने का आरोप लगता रहा है. यहां तक कि अक्सर आईएमआईएम को बीजेपी की ‘बी’ कहा जाता है. ओवैसी जिस चुनाव में उतरते हैं, वहां तो उनके अधिकांश उम्मीदवारों की जमानतें जप्त हो जाती हैं, पर उनके आने से होने वाला ध्रुवीकरण भारतीय जनता पार्टी को बुरी स्थिति से बाहर जरूर निकाल ले जाता है.

आईएमआईएम को बीजेपी की ‘बी’ टीम इसलिए भी कहा जाता है कि चुनाव से पहले जमीनी स्तर पर यह कोई काम नहीं करती. कहीं, किसी प्रदेश में सक्रिय है भी तो बराए नाम. मगर चुनाव से ऐन पहले ओवैसी इतने जोर-शोर से सक्रिय होते हैं, मानों सारी सीटें यही जीत ले जाएंगे. इसी क्रम में उत्तर प्रदेश में 100 सीटों पर जमानतें जप्त कराने के बाद अब उन्हांेने राजस्थान और गुजरात का विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया है.

सवालों के घेरे में भूमिका

ओवैसी की चुनाव में भूमिका इसलिए भी संदिग्ध मानी जाती है, क्यों कि जहां मुसलमान या सेक्युलर पार्टियां मजबूत और भाजपा कमजोर स्थिति में होती है, वहीं ओवैसी ‘बैंड-बाजा-बारात’ लेकर पहुंच जाते हैं. अभी पांच राज्यों में चुनाव हुए. जहां एक दशक पुरानी आम आदमी पार्टी ने मणिपुर छोड़कर बाकी सभी चार प्रदेशों गोवा, उत्तराखंड, पंजाब और उत्तर प्रदेश में अपने प्रत्याशी उतारे, वहीं दशकों पुरानी पार्टी आईएमआई मुसमलानों एवं सेक्युलर जमातों का खेल बिगाड़ने के लिए केवल उत्तर प्रदेश में ही अपनी ‘पूरी ताकत’ झांेकती नजर आई. हालांकि, ऐन मतदान से पहले जब ओवैसी का ‘हिजाबी मुसलमान’ के प्रधानमंत्री बनने वाला बयान आया, उसी समय स्पष्ट हो गया कि वह और उनकी पार्टी दरअसल किसे लाभ पहुंचाने के लिए चुनाव लड़ रही है.

दरअसल,भगवा जमात यह दुष्प्रचार करती रही है कि मुसलमानों की आबादी अन्य समुदाय से तेजीे से बढ़ रही है. इस समुदाय के पास रोजगार, नौकरी हो या न हो, पर यह बच्चे पैदा करने मंे माहिर है. इस हिसाब से 2040 में भारत में मुसलमानों की इतनी आबादी हो जाएगी कि एक दिन इनका इस देश का प्रधानमंत्री होगा. तब हिंदू समुदाय का इस देश में रहना मुश्किल हो जाएगा. फिर कभी कोई हिंदू प्रधानमंत्री नहीं बनेगा. ऐसा ही दुष्प्रचार कर कट्टरपंथी लोगों को बरगलाते रहते हैं. यहां तक कि यदि किसी कस्बा, शहर का मुसलमान जगह और मस्जिद की तंगी की वजह से किसी खुले स्थान पर साप्ताहिक जुमे की नमाज पढ़ता है, तो यह कहकर भ्रम फैलाने की कोशिश की जाती है कि जब तेजी से बढ़ती आबाद इस देश में इतनी हो जाएगी कि वह हुकूमत की बागडोर अपने हाथ में ले लेगी, तब हिंदुओं का जीना दुभर हो जाएगा.मुसलमान फिर किसी के भी घर में घुसकर नमाज अदा कर सकते हैं. ओवैसी का हिजाबी मुसलमान का प्रधानमंत्री बनने वाला बयान दरअसल, ऐसे दुष्प्रचार को ही आगे बढ़ाता है. मतदान से ठीक पहले ऐसे बयान आते ही उत्तर प्रदेश में तेजी से ध्रुवीकरण का माहौल बना. इससे पहले दावे-प्रतिदावे को चुनाव प्रचार में तरजीह दी जा रही थी. यहां तक कि जिन्ना, पाकिस्तान, हिजाब, अयोध्या, मथुरा जैसे मुद्दे को अहमियत नहीं मिल रही थी.

जमीन पर संगठन नहीं

बता दूं कि आईएमआईएम का जमीन पर संगठन नहीं होने के बावजूद ओवैसी ने 100 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे. यहां उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में मुसमलान 100 से 125 सीटों पर ऐसी स्थिति में हैं कि वो किसी दल को भी हरा या जिता सकते हैं. ओवैसी ने उन सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े कर  मुस्लिम वोटरों को इस कदर भ्रमा दिया कि वोटर ओवैसी और सेक्युलर पार्टियों के बीच बंट कर रह गए. जिसका सीधा फायदा बीजेपी को मिला. यही वजह है कि भगवा पार्टी देवबंद जैसे जिले में अच्छी संख्या में सीटें लेने में सफल रही. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमान और जाट मजबूत स्थिति में हैं. ओवैसी ने वहां के मुसलमानों को भी भ्रमाने की कोशिश की, पर चूंकि किसान आंदोलन के कारण  वहां का जाट समुदाय इस इस बार बीजेपी के खिलाफ था, इस वजह से ओवैसी वहां के मदताओं के बीच अपनी पैठ नहीं बना पाए. आरएलडी और सपा में गठबंधन होने के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश का अधिकांश वोट इसके साथ गया. इस बार 36 से अधिक मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीते हैं, उनमें से अधिकांश पश्चिमी यूपी के हैं.

ओवैसी को मिली शर्मनाक हार

इन चुनाव में यूपी की जनता ने ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को बुरी तरह नकार दिया. गुरुवार को जारी हुई चुनाव के नतीजों में एआईएमआईएम के अधिकतर उम्मीदवार 5 हजार से ज्यादा वोट हासिल नहीं कर पाए. शाम 4 बजे तक की काउंटिंग में ओवैसी  की पार्टी को यूपी में आधा फीसदी से भी कम वोट मिलता हुआ नजर आया.

5 हजार तक भी नहीं पहुंचे उम्मीदवार

चुनाव आयोग के मुताबिक शाम 4 बजे तक आजमगढ़ से आईएमआईएम के उम्मीदवार कमर कमाल को 1368 वोट, देवबंद सीट से उमैर मदनी को 3145 वोट, जौनपुर से अभयराज को 1340 और कानपुर कैंट से मुइनुददीन को 754 वोट मिले थे. इसी तरह लखनऊ सेंट्रल से सलमान को 463 वोट, मुरादाबाद से बकी रशीद को 1266,  मेरठ से इमरान अहमद को 2405, मुरादाबाद ग्रामीण से मोहीद फरगनी को 1771 वोट और निजामाबाद से अब्दुर रहमान अंसारी को 2116 वोट हासिल हो चुके थे.  मुजफ्फरनगर से मो. इंतजार को 2642 वोट, संडीला से मोहम्मद रफीक को 1363, टांडा से इरफान को 4886, सिराथू से यार मोहम्मद को 571 और बहराइच से राशिद जमील को 1747 वोट प्राप्त हो चुके थे.

ओवैसी ने यूपी में उतारे थे 100 कैंडिडेट

चुनाव आयोग की वेबसाइट के मुताबिक यूपी में एआईएमआईएम को अभी तक 0.43 फीसदी वोट प्राप्त हुए हैं.इसने यूपी असेंबली चुनाव में 100 उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारने का दावा किया था. ओवैसी ने अपने उम्मीदवार उन्ही सीटों पर उतारे थे जो मुस्लिम बाहुल्य थी. गुरुवार को सामने आए चुनावी नतीजों से स्पष्ट है कि उन्हें यूपी के मुसलमानों समेत आम मतदाताओं ने बुरी तरह नकार दिया.

2017 में 37 कैंडिडेट को लड़ाया था चुनाव

बताते चलें कि असदुद्दीन ओवैसी ने वर्ष 2017 में भी यूपी असेंबली का चुनाव लड़ा था. उस दौरान उन्होंने प्रदेश की 38 सीटों पर अपने कैंडिडेट उतारे थे. जिनमें से 37 सीटों पर उनके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. इस बार भी उनके अधिकतम उम्मीदवार 5 हजार वोटों के भीतर सिमटकर रह गए.

चुनाव के नतीजों के बाद ओवैसी का बयान

चुनाव के नतीजों के बाद असदुद्दीन ओवैसी ने रिजल्ट पर बयान जारी किया है. ओवैसी ने कहा, ‘यूपी की जनता ने बीजेपी को सत्ता सौंपने का फैसला किया. मैं जनता के इस नतीजे का सम्मान करता हूं. मैं यूपी में काम करने वाले, पार्टी के राज्य अध्यक्ष, वर्कर, मेंबर और हमें वोट देने वाले आम लोगों का शुक्रिया अदा करते हैं. हमें जीत के लिए बहुत मेहनत की लेकिन नतीजे हमारे हिसाब से नहीं आ पाए. हम दोबारा से कठोर मेहनत शुरू करेंगे.‘

ईवीएम में कोई गड़बड़ी नहीं, लोगों के दिमाग में लगी है चिप‘

एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने सपा की ओर से उठाए जा रहे ईवीएम के मुद्दे को खारिज किया. उन्होंने कहा, सभी राजनीतिक दल अपनी हार को छिपाने के लिए ईवीएम का मुद्दा उठाना चाहते हैं. ईवीएम में कोई गड़बड़ी नहीं है, लोगों के दिमाग में ही चिप है. यह सफलता है, लेकिन यह 80ः20 है. हम कल से दोबारा काम करना शुरू करेंगे और उम्मीद है कि अगली बार बेहतर करेंगे.‘

हैदराबाद के बाहर ओवैसी फुस बम

ओवैसी हैदराबाद के बाहर सुतली बम हैं. तेलंगाना में इनके गिने चुने विधायक हैं.संगठनात्मक तौर पर आईएमआईएम की इतनी बुरी स्थिति है कि खुद उनके घर में घुसकर बीजेपी उन्हें चैलेंज कर रही है. पिछला स्थानीय निकाय चुनाव का परिणाम देखें, तेलंगाना में बेहतर स्थिति में नहीं होने के बावजूद बीजेपी ने बेहतर प्रदर्शन किया.

दरअसल, तेलंगाना के बाहर आईएमआईएम के एक सांसद और चंद विधायक, कोई ओवैसी की बदौलत नहीं बने हैं. महाराष्ट्र के औरंगाबाद से पत्रकार रहे जलील एआईएमआईएम के सांसद हैं. बिहार में इनके पांच विधायक हैं. उनकी जीत में पार्टी से कहीं अधिक हिस्सेदारी खुद उम्मीदवारों की अपनी छवि और अपना काम है. बिहार प्रदेश के एआईएमआईएम अध्यक्ष एवं विधायक अख्तरुल इमान खुद बेहद दबंग और सक्रिय हैं. जमीन पर काम करना पसंद करते हैं. बिहार के सीमांचल इलाके में ओवैसी की पार्टी का पैर अख्तरुल इमान ने जमाया है. इसमें ओवैसी की खास भूमिका नहीं है. इसी तरह गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव में एआईएमआईएम कुछ सीटें इसलिए जीतने में सफल रही, क्यों कि स्थानीय उम्मीदवार बहुत पहले से अपने लोगों के बीच काम कर रहे थे. ओवैसी का मुखड़ा तो ऐन चुनाव के समय गुजरात में नजर आया था.

जमीन पर नहीं लड़ते ओवेसी

बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी वक्ता बहुत अच्छे हैं. पूरे तथ्य के साथ बोलते हैं. संसद में भी उन्हें दहाड़ते देखा जा सकता है. उससे कहीं ज्यादा वह सोशल मीडिया में सक्रिय हैं. देश-दुनिया में कहीं कोई घटना हो जाए, झट उनका बयान आ जाता है. उनकी तथ्यपरक बातें ही दरअसल,आईएमआईएम का सरमाया है. अन्यथा मुसमलानों, दलितों के हक में सड़कों पर लड़ते ओवैसी को कभी नहीं देखा गया. संशोधित नागरिकता कानून सीएए को लेकर जब देश का मुसलमान धरना-प्रदर्शन कर रहा था, तब भी ओवैसी दूर बैठकर तमाशा देख रहे थे. मुसमलनों के रोजी-रोजगार, तालीम, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी सवाल को लेकर ओवैसी सड़कों पर नहीं लड़ते. मगर चुनाव में मुसलमानों एवं सेक्युलर जमातों का खेल बिगाड़ने जरूर पहुंच जाते हैं. यही नहीं तमाम सेक्युलर पार्टियों को बुरा-भला कहने में भी यह बीजेपी से आगे हैं. ऐसे में उन पर बी टीम होने का ठप्पा लगना लाजमी है.