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पाकिस्तान में किसान पस्त, नेता मस्त

अजमल जामी

बचपन से हमने पढ़ा है कि पाकिस्तान एक कृषि प्रधान देश है. कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. देश में सभी मौसम उपलब्ध हैं. यह क्षेत्र सभी प्रकार के कृषि उत्पादों के लिए अनुकूल है. यह नदियों की भूमि है, जहां कृषि प्राकृतिक रूप से बढ़ती है, लेकिन कैसे ? क्या उसी कृषि प्रधान देश के किसान की आर्थिक हत्या की जा रही है?

क्या किसान अगली फसल उगाने में सक्षम हंै? नौकरशाही की अक्षमता के कारण मक्के का गेहूं आयात कर भंडारण करना पड़ा, फिर उसी निर्णय के कारण अब सरकार के पास बंपर फसल खरीदने के लिए न तो पूंजी है और न ही भंडारण की जगह.

पिछले साल देशभर में गेहूं खरीद का लक्ष्य 78 लाख टन रखा था, जबकि इस साल यह लक्ष्य घटाकर आधा यानी 44 लाख टन कर दिया गया है. जब सरकार पिछले साल की तुलना में आधी खरीददार होगी तो सोचिए माफिया छोटे किसानों का कितनी क्रूरता से शोषण करेंगे. इधर, पंजाब में पिछले साल 45 लाख टन गेहूं खरीद के लक्ष्य की तुलना में इस साल सिर्फ 20 लाख टन गेहूं खरीदा गया.

सिंध में 14 लाख की जगह 10 लाख टन और बलूचिस्तान में 100,000 टन की जगह सिर्फ 50,000 टन का नया लक्ष्य रखा गया है. खैबर पख्तूनख्वा सरकार ने इस संबंध में कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया है.अब सवाल यह है कि सरकार पिछले साल की तुलना में आधा लक्ष्य क्यों तय कर रही है? उत्तर सरल लेकिन दर्दनाक है. कार्यवाहक सरकार के दौरान अक्षम नौकरशाही की अयोग्य सलाह के कारण 22 लाख टन गेहूं विदेशों से खरीदा गया. माना जाता है कि इस विद्या से आटे के संकट को टाला जा सकता था.

खरीद से पहले नौकरशाही आगामी बम्पर फसल का अनुमान लगाने में विफल रही,. उन्होंने वायदा की तुलना में उपलब्ध कमीशन को अधिक महत्व दिया. किसान को वजन कम करने के चक्र में फंसा दिया गया. किसान को बंपर फसल उगाने में दशकों खर्च करने के लिए मजबूर होना पड़ता है.

जब बाजार को सरकार के इन विचारों के बारे में पता चला तो जाहिर है कि किसान का गला घोंटने की तैयारी कर ली गई. समर्थन मूल्य 3900 रुपये प्रति मन तय, सरकारी खरीद केंद्र अब भी पहले की तरह नहीं चल रहे. फसल पक चुकी है. ज्यादातर इलाकों में कट चुकी है. किसान गेहूं से जूझ रहा है. माफिया रूपी आढ़ती या आटा मिलें 22 सौ रुपये से लेकर 27 सौ रुपये प्रति मन तक बोली लगा रही हैं. किस्मत अच्छी रही तो बोली 31 सौ रुपये यानी 32 रुपये प्रति मन पर बैठती है. पैसा लेने और बोझ उतारने का सुख किसान जानता है.अगर छोटे किसान की परिभाषा छह एकड़ जमीन मानी जाए तो एक अनुमान के मुताबिक अगर कोई किसान गेहूं 100 रुपये किलो बेचता है.

बिजली बिल, महंगी खाद, बुआई और अन्य खर्चों के बाद इसकी लागत 6 लाख 50 हजार से 6 लाख 90 हजार के बीच आती है. आखिर में उसे 70 या 80 हजार या ज्यादा से ज्यादा एक लाख रुपये ही मिलते हैं.ऐसे में किसान अगली फसल की खेती कैसे करेगा? इन पैसों से बच्चों की फीस, बिल, शादी और रोटी-पानी कैसे संभव होगा? उसे अगली फसल के लिए बीज, बुआई और अन्य जरूरतें कहां से मिलेंगी? सही मायनों में किसानों की सरकार को कोई परवाह नहीं.

तुम्हें किस की परवाह है? जो लोग भविष्य के डर पर आधारित निर्णयों का बोझ उठाते हैं वे इस दावे पर चर्चा करने को तैयार नहीं हैं. किसान राहत पैकेज के नाम पर क्या वे किसान की इस मूल शिकायत का समाधान कर सकते हैं? जवाब न है.अगला कदम तब होगा जब छोटे उपभोक्ता के लिए बिजली की कीमत 60 रुपये प्रति यूनिट के बजाय 70 रुपये प्रति यूनिट से अधिक हो जाएगी. यह वह चरण होगा जब घरेलू उपभोक्ता बिजली बिल का भुगतान करने में सक्षम नहीं होंगे.

सरकार को लगता है कि 20 की जगह 16 रोटियां देकर उन्होंने सचमुच क्रांति कर दी है.हैरानी की बात है कि इन सबके बीच नेता उपचुनाव में जीत-हार और धांधली का सिलसिला बढ़ाने में लगे हुए हैं. सरकार अपनी जीत का जश्न मना रही है. अपनी उपलब्धियां गिना रही है. किसकी जीत और किसकी हार? किसान की दुर्दशा को हल से बांध कर कौन सी सरकार क्रांति ला सकती है? क्या सरकार अतीत या वर्तमान के गलत फैसलों का बोझ उठा पाएगी? या फिर तंदूर पर सोला की रोटी पर टिक टॉक वीडियो के जरिए सभी अच्छाइयों का गाना सुनाई देगा?

या फिर किसान जुताई जारी रखेगा तो अगली फसल बर्बाद हो जाएगी और फिर इस संकट का असर शहरों में रहने वाले नागरिकों पर भी पड़ेगा. तब न तो सोला की रोटी चलेगी और न ही क्रांतिकारी वीडियो.अल्लाह मेरे देश के किसान की रक्षा करें.कड़ी मेहनत करने के बाद आखिरकार हम भूखे ही सो जाएंगे.

-उर्दू न्यूज से साभार