हबीब तनवीर: क्या रंगमंच का यह विद्रोही किस्सागो भुला दिया गया ?
मुस्लिम नाउ ब्यूरो,नई दिल्ली
“हबीब तनवीर साहब एक लंबे, गोरे, सलीकेदार व्यक्तित्व वाले इंसान थे जिनकी आवाज़ बेहद भारी और प्रभावशाली थी, और जो मार्क्सवादी अंदाज़ में पाइप पकड़े रहते थे…” — जाने-माने रंगकर्मी, नाटककार और निर्देशक डॉ. एम. सईद आलम इस तरह से उन्हें याद करते हैं। आलम कहते हैं, “उर्दू थियेटर के लिए तनवीर की मौत एक बड़ी क्षति थी।” लेकिन उनके निधन के वर्षों बाद यह सवाल उठता है:
क्या उनकी विरासत अब भी ज़िंदा है या धीरे-धीरे गुमनामी की ओर बढ़ रही है?

रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर सिर्फ अभिनेता या नाटककार नहीं थे। वे पद्मश्री सम्मानित कवि, निर्देशक और नया थियेटर के संस्थापक थे—एक ऐसा मंच, जिसने छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों को मुख्यधारा में लाकर खड़ा कर दिया। उनकी प्रसिद्ध रचनाएं ‘आगरा बाजार’ और ‘चरणदास चोर’ (जो मूलतः विजयदान देथा द्वारा लिखित थी) आज भी देश के कई हिस्सों में मंचित होती हैं, लेकिन आमजन में उनका नाम धीरे-धीरे ओझल होता जा रहा है।
एक ऐसा कलाकार जिसने दो दुनियाओं को जोड़ा
हबीब तनवीर ने केवल नाटक नहीं लिखे, बल्कि उन्होंने भारतीय रंगमंच की परिभाषा को नया रूप दिया। उन्होंने लोक परंपराओं और समकालीन राजनीति को एक मंच पर लाकर प्रस्तुत किया। उन्होंने न केवल ग्रामीण भारत की आवाज़ को रंगमंच पर स्थान दिया, बल्कि उसे देश और दुनिया में मान्यता दिलाई।
वरिष्ठ रंग समीक्षक और पत्रकार राजेश चंद्रा कहते हैं, “वह एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने भारतीय कला रूपों को यूरोप और पश्चिमी दुनिया तक पहुंचाया और अंतरराष्ट्रीय पहचान हासिल की। उनके नाटकों में आम आदमी की ज़िंदगी, ज़रूरतें और लालच को बेहद ईमानदारी से दिखाया जाता था।”

हालांकि वह मानते हैं कि तनवीर के स्तर का कोई दूसरा कलाकार अब तक सामने नहीं आया। “उनकी विचारधारा को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं है। हां, कुछ लोग जैसे अरविंद गौड़, जिनके नुक्कड़ नाटक और मंचन बेहद जीवन्त हैं—वह कोशिश ज़रूर कर रहे हैं,” चंद्रा कहते हैं।
हालांकि, कुछ लोग इस तुलना से असहमति रखते हैं। तनवीर का रंगमंच उग्र या प्रचारात्मक नहीं था। वे एक विद्रोही ज़रूर थे, लेकिन एक ऐसे किस्सागो, जिन्होंने जनजातीय कलाकारों के साथ काम करते हुए, उनकी भाषा, संस्कृति और संघर्ष को मंच पर जीवंत किया।
क्या उनकी विरासत लुप्त हो रही है?
तो फिर ऐसा क्यों लगता है कि हबीब तनवीर का नाम आज के सांस्कृतिक विमर्श में गूंजता नहीं?

शायद इसका उत्तर हमारी तेजी से बदलती डिजिटल संस्कृति और स्थानीय भाषाई रंगमंच को मिलने वाले कम समर्थन में छुपा है। आज के तेज़-रफ़्तार, शहरी और डिजिटल माध्यमों में तनवीर के धीमे, गूंजते, लोक-जीवन से जुड़े नाटकों के लिए शायद उतनी जगह नहीं रही।
अनजुम कटियाल, जिन्होंने “Habib Tanvir: Towards an Inclusive Theatre” नामक किताब लिखी है, तनवीर के एक कथन को उद्धृत करती हैं:
“पढ़े-लिखे लोगों में वह संस्कृति नहीं होती जो गांव के लोगों में भरपूर होती है, हालांकि वे अनपढ़ होते हैं… लेकिन हमारी मौखिक परंपराओं से वह कमी पूरी हो जाती है।”
तनवीर को ग्रामीण भारत की सांस्कृतिक विरासत पर गहरा विश्वास था। वे मानते थे कि लोकगीत, किस्से, और परंपरा सिर्फ मनोरंजन नहीं बल्कि समाज का आईना हैं।
निष्कर्ष:
हबीब तनवीर न सिर्फ रंगमंच के विद्रोही थे बल्कि एक ऐसे दृष्टा थे जिन्होंने जन-जीवन को रंगमंच पर न सिर्फ उतारा, बल्कि उसे गरिमा दी। आज जब रंगमंच, मनोरंजन और विचार की सीमाओं को तलाश रहा है, तो हबीब तनवीर का स्मरण यह याद दिलाता है कि सच्ची कलात्मकता सीमाओं को नहीं मानती—वह लोक से उपजती है और दुनिया से संवाद करती है।
