ईरान और पाकिस्तान: अपराधी कौन
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सलीम सफी
Iran and Pakistan: who is the culprit? ईरान और पाकिस्तान के रिश्तों को दो अवधियों में बांटा जा सकता है. एक, क्रांति से पहले इमाम खुमैनी के ईरान-पाकिस्तान संबंध और दूसरा, क्रांति के बाद का संबंध.शाही युग के दौरान, पाकिस्तान और ईरान के बीच संबंध बहुत मधुर थे, लेकिन एहसान के मामले में ईरान का बोझ भारी था.
ईरान अपनी स्थापना के तुरंत बाद पाकिस्तान को मान्यता देने वाला पहला देश था. ईरान ने पाकिस्तान को एक नवोदित देश के तौर पर अपने पैरों पर खड़ा करने में भी मदद की. उन्होंने 1965 और 1971 के युद्ध में पाकिस्तान का समर्थन किया. यह काम तब इसलिए भी आसान था, क्योंकि शाही ईरान और पाकिस्तान दोनों अमेरिकी खेमे में बने हुए थे.
इमाम खुमैनी की क्रांति के बाद दूसरा दौर शुरू हुआ. हम इसे प्यार और नफरत का दौर कह सकते हैं. जिसमें पाकिस्तान का पलड़ा भारी रहा. इसके विपरीत ईरान का रवैया परोक्ष सहयोगी के बजाय प्रतिस्पर्धी हो गया.क्रांति के बाद ईरान ने अमेरिकी खेमे को छोड़ दिया.पाकिस्तान पहले की तरह उसी खेमे में बना रह गया. अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले के संदर्भ में पाकिस्तान और संयुक्त राज्य अमेरिका की नजदीकियां बढ़ गईं.
दूसरी ओर, ईरान ने अपनी क्रांति को पाकिस्तान और अन्य देशों में निर्यात करने की कोशिश की जिससे पाकिस्तान की मुश्किलें बढ़ गईं.दूसरी ओर, अरब देश हर कठिन समय में पाकिस्तान को वित्तीय सहायता प्रदान करते रहे, जबकि अरब देश पाकिस्तानी विदेशी मुद्रा का प्रमुख स्रोत भी बने रहे. इस संदर्भ में, पाकिस्तान का अरब गुट में शामिल होना पूरी तरह से उचित था. इस बीच पाकिस्तान अरब देशों और ईरान से अपने संबंधों में संतुलन बनाए रखा. दूसरी तरफ ईरान पाकिस्तानी धरती पर सऊदी अरब के साथ अपना छद्म युद्ध जारी रखा.इसके कारण पाकिस्तान में सांप्रदायिक तनाव बढ़े. विरोध को लगातार हवा मिलती रही.
दूसरी ओर, पाकिस्तान ईरान-इराक युद्ध में न केवल तटस्थ रहा, ईरान की मदद भी करता रहा. जब संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ ईरान के राजनयिक संबंध समाप्त हुए, तो पाकिस्तानी दूतावास को ईरान के लिए संपर्क बिंदु के रूप में इस्तेमाल किया गया. ईरान ने कभी भी इन एहसानों का बदला नहीं लिया.
दोनों देशों के बीच संघर्ष का एक बड़ा कारण अफगानिस्तान रहा. हालाँकि दोनों देश मुजाहिदीन का समर्थन करते. सऊदी अरब और पाकिस्तान से अधिकांश सहायता अफगानिस्तान के सुन्नी और पश्तून संगठनों को जाती है, जबकि ईरान के फारसी-भाषी और हजारा संगठन समर्थन प्रदान करते रहे. सोवियत संघ की वापसी के बाद से ईरान, पाकिस्तान की तुलना में अफगानिस्तान भारत का भागीदार बन गया.
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जब पाकिस्तान के समर्थन से तालिबान सरकार अफगानिस्तान में सत्ता में आई, तो ईरान ने न केवल भारत के साथ उत्तरी गठबंधन का समर्थन किया. एक समय उसने अफगानिस्तान की सीमा पर तालिबान के खिलाफ अपनी सेना भी इकट्ठा की, लेकिन पाकिस्तान इसे रोकने की कोशिश करता रहा. तालिबान ईरान के ख़िलाफ कोई कार्रवाई न करें.
पाकिस्तान पर ईरान के परमाणु कार्यक्रम का समर्थन करने का भी आरोप लगा. जब पश्चिम से दबाव आया, तो ईरानी अधिकारियों ने बताया कि पाकिस्तान ने उनके साथ सहयोग किया है.हामिद करजई और अशरफ गनी के शासन में, अगर भारत पाकिस्तान के खिलाफ अफगान धरती का इस्तेमाल कर रहा, तो यह सब ईरान के सहयोग के कारण था.
दोनों ही सरकारों में अफगान मीडिया पर अमेरिका से ज्यादा ईरान का प्रभाव था. पाकिस्तान के खिलाफ लगातार जहरीला प्रचार किया जाता था. दोनों के बीच तनाव न हो तो इसमें पाकिस्तान की भी कोशिशें शामिल हैं. दुर्भाग्य से ईरान का रवैया ऐसा नहीं रहा. बदल गया.
जहां तक बलूच अलगाववादियों का सवाल है. वे दोनों देशों के लिए बराबर का खतरा हैं. इमाम खुमैनी की क्रांति से पहले दोनों देश उनके खिलाफ संयुक्त कार्रवाई करते थे. अब हालात ऐसे हैं कि ईरान, बलूच उग्रवादियों को कुचलना चाहता है. पाकिस्तानी बलूच उग्रवादियों को सशक्त बनाना चाहता है. इस बदलाव का कारण सीपीईसी और भारत से इसकी निकटता है.
ईरान को लगता है कि सीपीईसी की सफलता की स्थिति में चाबहार का महत्व खत्म हो जाएगा.वह पाकिस्तानी बलूच आतंकवादियों को अपने सुरक्षित घरों में रखता है (गुलजार इमाम शान्बे मानते हैं कि वे ईरान के सुरक्षित घरों में रहते हैं) और दूसरी ओर वह ऐसे ही अन्य पात्रों को आश्रय देता है.
अतीत में, पाकिस्तान ने दर्जनों जुनदुल्ला अधिकारियों को गिरफ्तार किया है. उन्हें ईरान को सौंप दिया है, लेकिन ईरान द्वारा वांछित लोगों को कभी भी पाकिस्तान को नहीं सौंपा गया.
पहले ईरान ने आरोप लगाया था कि जुंदुल्लाह का मुखिया अब्दुल मलिक रेगी पाकिस्तान में है. जब उसे गिरफ्तार किया गया तो वह एक अरब देश जा रहा था. उसके पास से अफगान सरकार के यात्रा दस्तावेज बरामद हुए थे. ईरानी दस्तावेजों के साथ चाबहार में रहने वाले भारतीय सेवा के खुफिया अधिकारी कुलभूषण यादव को पाकिस्तान ईरान के खिलाफ एक बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकते थे, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. दुर्भाग्य से ईरान का व्यवहार फिर भी नहीं बदला.
अलगाववादी तत्वों को दबाने के लिए दोनों देशों के बीच संचार का तंत्र भी है. मुझे नहीं पता कि इस बार ईरान ने दूतावास और सीमा संचार को ताक पर रखकर बलूचिस्तान में हमला क्यों किया ?
पाकिस्तान ने तुरंत कूटनीतिक मोर्चे पर कड़ा विरोध जताया. साथ ही घरेलू संपर्कों के जरिए ईरान से अपने एक अधिकारी की गलती स्वीकार करने और माफी मांगने के लिए कहता रहा. ईरान इस बात पर अड़ा रहा कि उसने कुछ भी गलत नहीं किया है. इस बात का सबूत भी नहीं दे सका. इसलिए पाकिस्तान को ईरानी बलूच आतंकवादियों को जवाब देने के लिए मजबूर होना पड़ा. स्पष्ट अंतर यह है कि ईरानी सरकार यह भी कह रही है कि पाकिस्तानी ऑपरेशन में जिन लोगों को निशाना बनाया गया, वे उनके नागरिक नहीं थे.
ईरान को पता है कि पाकिस्तान इराक या सीरिया नहीं है. न तो पाकिस्तान और न ही ईरान को इस मुद्दे को आगे बढ़ाना चाहिए. इस प्रक्रिया से दोनों में से किसी को भी फायदा नहीं होगा. अगर फायदा होगा तो सिर्फ इजराइल को. अगर नुकसान होगा तो सिर्फ फिलिस्तीनियों को. इससे एक तरफ गाजा के मुद्दे से ध्यान भटकेगा तो दूसरी तरफ देश की ताकतें दोनों फिलिस्तीन समर्थक देश इजराइल के बजाय एक दूसरे के खिलाफ खर्च करेंगे.
पाकिस्तान-ईरान तनाव का फायदा इजराइल के बाद किसी और ताकत को हो सकता है तो वो हैं बलूच अलगाववादी, जो ईरान के साथ-साथ पाकिस्तान के लिए भी खतरा हैं. इनसे निपटने के लिए एक दूसरे का सहयोग जरूरी है.अगर ईरान, पाकिस्तान के साथ आपसी सहमति से मामला नहीं सुलझा, तो दोनों देशों को चीन की मध्यस्थता से एक संयुक्त कार्ययोजना बनानी चाहिए.
-पाकिस्तान के जंग से साभार. लेख में दिए गए कुछ तथ्यों से मुस्लिम नाउ सहमत नहीं है.