जश्न-ए-अदब 2025: जब गुरुग्राम की शाम वसीम बरेलवी, सुरेन्द्र शर्मा और फरहत एहसास के अशआरों से महक उठी
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मुस्लिम नाउ ब्यूरो,गुरुग्राम, हरियाणा –
गंगा-जमुनी तहजीब की खुशबू, लफ़्ज़ों की रवानी, और फ़िक्र के चिराग़ों से रोशन हुई एक शाम—ऐसा दृश्य गुरुग्राम के एस्प्लेनेड मॉल में 24 और 25 मई को आयोजित जश्न-ए-अदब सांस्कृतिक कारवां 2025 में देखने को मिला। लेकिन इस बार महज़ कोई आम आयोजन नहीं था। यह एक ऐसा महफिलनुमा कारवां था, जिसमें वसीम बरेलवी की संजीदा शायरी, पद्मश्री सुरेन्द्र शर्मा की व्यंग्यात्मक सरलता, फरहत एहसास की सूफियाना गहराई, कैसर खालिद (IPS) का बौद्धिक तेवर और जावेद मुशायरे की युवा ऊर्जा, सब कुछ एक साथ उमड़ पड़ा।

जब शायरी ने ज़मीर को झकझोरा
कार्यक्रम का सबसे जीवंत और अभिव्यक्तिपूर्ण हिस्सा मुशायरा और कवि सम्मेलन रहा, जो आयोजन के दूसरे दिन (25 मई) की शाम को आयोजित हुआ। देश के दिग्गज शायर और कवि, एक ही मंच पर, एक ही सांस में… और हर शेर, हर मिसरा, जैसे सीधे दिल में उतरता चला गया।
वसीम बरेलवी, जिनकी नज़्मों ने पिछले कई दशकों से अदबी महफ़िलों की पहचान बनाई है, उन्होंने जब कहा –
“मिरे शौक़ की इन्तिहा चाहता है, तेरा नाम सबकी ज़बां चाहता है”,
तो पूरा हॉल तालियों की गूंज से भर गया। उनकी शायरी न केवल मोहब्बत की, बल्कि इंसानी रिश्तों की बुनियादों को भी छूती रही। बरेलवी की मौजूदगी ने जैसे आयोजन को एक आत्मिक गरिमा दे दी।
पद्मश्री सुरेन्द्र शर्मा, जिनकी व्यंग्य-कविताएं ज़माने की विडंबनाओं को हँसी की चाशनी में पेश करती हैं, ने माहौल को हल्का और गूढ़, दोनों बना दिया।
उनकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ – “चाँदनी चौक में चाँद ढूंढते हुए, मैं उम्र भर दिल्ली की गलियों में भटकता रहा।” – पर लोग ठहाकों में डूबे, पर उसके भीतर की उदासी को भी महसूस कर सके।
फरहत एहसास, जिनकी शायरी में सूफियाना रंग, समाजी सवाल और ज़िन्दगी की गहराई, तीनों एक साथ मौजूद रहते हैं – उन्होंने ग़ज़ल के माध्यम से समकालीन भारत की चिंता और संवेदनशीलता को उकेरा।
उनकी प्रस्तुति श्रोताओं को एक अजीब-सी तसल्ली और बेचैनी एकसाथ दे गई।
कैसर खालिद (IPS), एक सीनियर पुलिस अधिकारी और मंझे हुए शायर के रूप में जाने जाते हैं। उनकी आवाज़ में जब व्यवस्था और ज़मीर की टकराहट के अल्फ़ाज़ गूंजे, तो ऐसा लगा कि वर्दी के पीछे एक ज़र्रे-ज़र्रे को समझने वाला कवि बैठा है।
उनकी कविता, “मैं शायर भी हूँ, और पहरेदार भी, अपनी हिफ़ाज़त में लफ़्ज़ों को रखता हूँ”, खासा पसंद की गई।
जावेद मुशायरे, नई पीढ़ी के एक जुझारू और संवेदनशील शायर के रूप में सामने आए। उनकी शायरी में जहां आधुनिकता की धड़कनें थीं, वहीं विरासत की जड़ें भी। उनके शेरों में मोहब्बत की मासूमियत भी थी और समाज के ज़ख़्मों की कसक भी।

रहमान खान: हास्य के बहाने गहरी बात
शब्दों की इस बौछार के बीच, मशहूर कॉमेडियन रहमान खान का प्रस्तुतीकरण एक ताज़ा हवा के झोंके जैसा रहा। उन्होंने जब-जब गुदगुदाया, वहीँ-वहीं गंभीर सवालों की तहें भी खोल दीं।
उनकी प्रस्तुति में धार्मिक एकता, सामाजिक विडंबनाएं और राजनीति पर पैनी टिप्पणियाँ हँसी के बीच गूंजती रहीं। उनका यह अंदाज़, खास तौर पर युवा दर्शकों को खूब भाया।
जब मंच बना कला और तहजीब का संगम
इस दो दिवसीय कार्यक्रम में न केवल साहित्य बल्कि संगीत, नृत्य और संस्कृति का भव्य संगम देखा गया। ऋचा जैन और समूह की ‘कथक-कथा’ ने उद्घाटन दिवस को पौराणिक रंगों से भर दिया, वहीं पंडित साजन मिश्रा और स्वर्णांश मिश्रा की युगलबंदी ने संगीत की आत्मा से परिचय कराया।
डॉ. विद्या शाह ने जब “हमारी अटरिया पे” जैसे ठुमरी और ग़ज़लों का सहज समागम प्रस्तुत किया, तो जैसे शब्द और सुर एक हो गए।

आयोजन की सोच: परंपरा और आधुनिकता का संगम
इस आयोजन के पीछे कृसुमी कॉरपोरेशन और संस्कृति मंत्रालय की सहभागिता रही। कंपनी के निदेशक (बिक्री व विपणन), श्री विनीत नंदा ने कहा –
“हमारा उद्देश्य था कि संस्कृति आधुनिकता के गलियारों में खो न जाए। लोगों की भागीदारी से यह स्पष्ट हो गया कि भारत की आत्मा आज भी कला, साहित्य और प्रेम में बसती है।”
वहीं, जश्न-ए-अदब के संस्थापक, कवि कुंवर रणजीत चौहान ने कहा –
“यह केवल एक मंच नहीं, पीढ़ियों के बीच एक संवाद है – जहां कविता, शायरी और संगीत, हमें हमारी तहज़ीब की याद दिलाते हैं। हम इस कारवां को गली-कूचों तक ले जाएंगे।”

समापन: साक्षात तहज़ीब का आलोक
कार्यक्रम के समापन पर जश्न-ए-अदब के अध्यक्ष श्री नवनीत सोनी ने सभी प्रतिभागियों और प्रायोजकों को धन्यवाद देते हुए कहा –
“यह आयोजन हमारी सांस्कृतिक जड़ों को फिर से सींचने का एक विनम्र प्रयास है, और इसके लिए हम सभी सहभागी संस्थाओं, विशेष रूप से संस्कृति मंत्रालय और कृसुमी कॉरपोरेशन के ऋणी हैं।”
निष्कर्ष:
गुरुग्राम की एक शाम जब वसीम बरेलवी की शायरी से महकी, सुरेन्द्र शर्मा के व्यंग्य से मुस्कराई, फरहत एहसास की गहराई से गंभीर हुई और कैसर खालिद की सोच से सजग – तो समझिए, जश्न-ए-अदब अपने उद्देश्य में सफल रहा। यह केवल एक कार्यक्रम नहीं, तहज़ीब का एक उत्सव था – जहां कविता, संगीत, व्यंग्य और चिंतन मिलकर एक साझा भारत की तस्वीर पेश कर रहे थे।