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मुस्लिम समुदाय और मोदी सरकार: अविश्वास की बढ़ती खाई

मुस्लिम नाउ संपादकीय

नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने, मंत्रिमंडल के गठन और मंत्रालय के बंटवारे के बाद गंगा में ढेर सारा पानी बह चुका है. बावजूद इसके यह बहस खत्म होने का नाम नहीं ले रहा कि मोदी मंत्रिमंडल में किसी मुसलमान को क्यों शामिल नहीं किया गया ? एक तबका बड़ी शान से तर्क दे रहा है कि वोट नहीं देंगे तो मंत्री पद भी नहीं मिलेगा ! क्या इतना भर कह देने से इस सवाल पर विराम लग जाएगा कि आजादी के 75 साल बाद मंत्रिमंडल में किसी मुसलमान को नहीं लिया जाना एक नई परंपरा की शुरुआत है ?

जाहिर सी बात है इस सवाल का जवाब इतना आसान नहीं. जब आप चुनाव नहीं जीतने पर भी सिख और ईसाई को मंत्रिमंडल में शामिल करते हैं तो यह सवाल बनता ही है.दरअसल, यह विश्वास का मसला है. दोनों तरफ से विश्वास का अभाव है. आजादी के बाद और खास कर पिछले 10 सालों में देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी मुसलमानों के जैसे अनुभव रहे, उसके आधार पर कहा जाता सकता है कि ऐसी हालत में उनका विश्वास जीतना आसान नहीं. चुनाव के दौरान बीजेपी नेताओं के मुस्लिम विरोधी प्रचार और मंत्रिमंडल में इस वर्ग को शामिल नहीं करने से अविश्वास की यह खाई और चैड़ी हुई.

पिछले 10 वर्षों में देश के मुसलमानों ने यह समझा है कि ऐसी सरकार की मौजूदगी में उसे किसी तरह की उम्मीद बेमानी होगी. यहां तक कि उससे मांगने पर भी कुछ नहीं मिलेगा. जो है वह भी छीन लिया जाएगा. उच्च शिक्षा में मुसलमानों को मिलने वाला स्काॅलरशिप इसका बेहतर उदाहरण है. ऐसे मंे जो कुछ करना है, उन्हें अपने बूते करना होगा. जब तक संविधान से छेड़ छाड़ नहीं किया जाता मुसलमान अपने संघर्ष की बदौलत बहुत कुछ हांसिल करते रहेंगे. हालांकि, संस्थानों का जिस तरह से ‘अपहरण’ हो रहा है, उससे मुसलमान थोड़े मायूस भी हंै.

मगर मुसलमानों से कहीं अधिक उन्हें चिंतित होने की जरूरत है, जिससे यह वर्ग दूर छिटक जा रहा है. मुसलमानों के ’सबका साथ, सबका विकास’ के नारे पर यकीन नहीं करता. मुख्तार अब्बास नकवी के हटने के बाद से पिछले दो साल से किसी मुसलमान को मंत्री नहीं बनाने से इन्हंे कोई फर्क नहीं पड़ा. इन परिस्थितियों मंे आगे भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. फर्क उन्हें पड़ने वाला है जो मुस्लिम लबादे में उनकी पार्टियों और संगठनों में हैं.

उनका विश्वास डिगेगा. बीजेपी और उसके अभिभावक संगठन आरएसएस में शामिल या उनके विचारों से सहमत मुसलमान उससे दूर छिटकेंगे. वे सोंचें कि इतन परिस्थितियों में उन्हें कैसे जोड़कर रखा जाए. केवल दरी बिछाने के लिए कोई राजनीति में नहीं आता है. सबकी अपनी आकांक्षाएं होती हैं. नहीं दोगे तो ये अपने आप तुम्हारे संगठन से निकल जाएंगे. ऐसे में घाटा तुम्हारा होगा. मुसलमानों और तुम्हें जोड़ने वाला पुल ढह जाएगा.

इस लिए दंभ भरना छोड़ दो. आरएसएस प्रमुख भागवत की भी शिकायत है कि तुम में अब शालीनता से कहीं अधिक गुरूर आ गया है. मुसलमानों को आरएसएस के करीब लाने वाले मोर्चा के प्रमुख इंद्रेश कुमार भी कहते हैं कि तुम्हारे अहंकारी होने से तुम्हे लोकसभा चुनाव में इतनी सीटें नहीं मिलीं, जितनी उम्मीद की जा रही थी. बीजेपी के लिए अब भी वक्त है. तमाम मुस्लिम विरोधी एजेंडा त्याग दे तो अन्य पार्टियों की उसके पास भी मुसलमानों का समर्थन होगा. मुसलमानों को नहीं करीब लाओगे तो हर बार गठबंधन की सरकार बनने की नौबत आएगी. जिस तरह से जातीय समीकरण बनन रहे हैं, कोई जरूरी नहीं कि अधिक दिनों तक सरकार बरकरार रह पाए.

महत्वपूर्ण बिंदु:

  • नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मंत्रिमंडल में कोई मुस्लिम प्रतिनिधि शामिल नहीं किया गया.
  • आजादी के 75 साल बाद यह पहली बार है जब मंत्रिमंडल में कोई मुसलमान शामिल नहीं हुआ है, जो एक नई परंपरा की शुरुआत मानी जा रही है.
  • विश्वास का मसला:
  • चुनाव के दौरान बीजेपी नेताओं के मुस्लिम विरोधी प्रचार और मंत्रिमंडल में मुस्लिमों को शामिल नहीं करने से विश्वास की खाई बढ़ी.
  • पिछले 10 वर्षों में मुसलमानों के अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि उनका विश्वास जीतना आसान नहीं होगा.

मुसलमानों को उम्मीद नहीं है कि मौजूदा सरकार से उन्हें कुछ मिलेगा.
उच्च शिक्षा में मिलने वाली स्कॉलरशिप जैसे उदाहरण बताते हैं कि मुसलमानों को मिलने वाली सुविधाएं भी छीनी जा रही हैं.

बीजेपी और आरएसएस के भीतर की स्थिति:

  • मुख्तार अब्बास नकवी के हटने के बाद से पिछले दो साल से किसी मुसलमान को मंत्री नहीं बनाया गया है.
  • आरएसएस और बीजेपी में शामिल या उनके विचारों से सहमत मुसलमानों का विश्वास डगमगा रहा है, और वे संगठन से दूर हो सकते हैं.
  • आरएसएस प्रमुख भागवत ने भी बीजेपी में बढ़ते अहंकार की शिकायत की है.
  • अगर बीजेपी मुस्लिम विरोधी एजेंडा छोड़ दे तो उसे मुसलमानों का समर्थन मिल सकता है.
  • मुसलमानों को करीब नहीं लाने से हर बार गठबंधन की सरकार बनने की नौबत आ सकती है.
  • जातीय समीकरण के बदलते स्वरूप के कारण सरकार को स्थायित्व बनाए रखने में दिक्कत हो सकती है.