रमजान 2023: 50 वर्षीय ट्यूनीशियाई महिला सेहरी में रोजेदारों को उठाने का क्यों कर रही है काम ?
गुलरूख जहीन
ट्यूनीशियाई महिला मुनीरा कीलानी रमजान के दौरान हर रात लोगों को सेहरी के लिए जगाने को शहर की सड़कों पर घूमती हैं.अरब में सहरी के लिए जो लोग जागने का काम करते हंै, उन्हें मुशराती कहते हैं. मुनीरा कीलानी अपने पड़ोसियों को जगाने के लिए मशरती की पारंपरिक भूमिका को जीवित रखने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं.
अल-इकसदिया के अनुसार ट्यूनीशिया में मशरती को बुताबिलाह भी कहा जाता है, जिसमें सेहरी को जगाने के लिए ढोल (तबला) का इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए जागने वाले को मुशरती और बौताबिला भी कहते हैं.
सहरी के लिए जागने की रस्म अरब देशों में प्राचीन काल से चली आ रही है. आधुनिक तकनीक के परिवेश में मशरती की भूमिका लुप्त होती जा रही है.मुनीरा कलानी ने कहा कि मुशरती का पेशा उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला है.मुनीरा कहती हैं, मेरे पिता ढोल पीटकर सेहरी के लिए लोगों को जगाते थे. मैंने उनसे यह हुनर सीखा और अब उनकी जगह अपने पड़ोसियों को जगाने का काम कर रही हूं.
मुनीरा ने कहा, मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं मशरती का पेशा अपनाऊंगी, लेकिन आर्थिक परिस्थितियों ने मुझे अपने परिवार के खाने और रहने की व्यवस्था का प्रबंधन करने के लिए इस पेशे को अपनाने के लिए मजबूर किया है.मुनीरा कीलानी 50 साल की हैं. उनका एक बीमार भाई है. ट्यूनीशिया में, यह शौक आमतौर पर पुरुषों के लिए विशेष रूप से माना जाता है.
मुनीरा कीलानी ने कहा कि जब भी रमजान आता है तो मुझे बहुत खुशी होती है, इससे मुझे रोजगार मिलता है. 250 दीनार की आय महत्वहीन नहीं है. वह कहती हैं, भीख मांगने या चोरी करने से जायज काम करके कुछ कमाई करना हजार गुना बेहतर है.मुनीरा ने अपने बचपन के बारे में बात करते हुए कहा कि जब मैं बच्ची थी तो अपने पिता को फॉलो करती थी. पिता मशरती बनकर घर से निकलते समय ढोल बजाते थे. मैंने उनसे ढोल बजाना सीखता था. मेरे पिता हर घर के सामने खड़े होकर बेदार होजाओ सहरी कर लो कहते थे. मैं वही दो मुहावरे दोहराती हूं.
मशरती के पेशे पर पुरुषों के एकाधिकार के बारे में पूछे जाने पर मुनिरा ने कहा कि यह सच है कि यह पेशा केवल पुरुषों के लिए रहा है, लेकिन मैं अपने परिवार और अपने भाई की खातिर मशरती हूं. मैं यह कुर्बानी दे रही हूं.मुनीरा ने कहा कि मुझे खुशी है कि पड़ोसी सेहरी के लिए मेरी आवाज के आदी हो गए हैं. यदि किसी रात मैं बीमारी के कारण सहरी को जगाने न जाऊं, तो पडोसी मेरा हालचाल पूछने पहुंच जाते हैं.
मुनीरा ने बताया कि वह रात तीन बजे घर से निकलती हैं और अलग-अलग मोहल्लों में घूमती हैं और ढोल बजाकर सेहरी के लिए उठती हैं.मुनीरा ने यह भी कहा कि वह रात में लोगों को सेहरी के लिए जगाती हैं और दिन में अलग-अलग जगहों से बची हुई रोटी इकट्ठा करती हैं.
इससे परिवार के खाने-पीने का इंतजाम होता है. हमारे पास खाने के लिए न तो गोश्त है और न ही चिकन. सब्जियों का प्रबंधन करना बहुत मुश्किल है. अल्लाह का शुक्र है कि हम भी इससे धन्य हो गए.