वक्फ आंदोलन में फूट या नेतृत्वहीनता? पटना की ‘वक्फ बचाओ’ रैली पर उठे कई सवाल
मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली/पटना
पटना के गांधी मैदान में हाल ही में आयोजित ‘वक्फ अधिनियम’ के खिलाफ़ ऐतिहासिक रैली ने भले ही भीड़ के लिहाज़ से सफलता का दावा पेश किया हो, लेकिन इसके मंच और नेतृत्व को लेकर मुस्लिम समाज के एक वर्ग में गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। खासकर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) की भूमिका को लेकर चर्चा गरम है—क्या यह आंदोलन अब बोर्ड के हाथ से निकल कर सियासी दलों के इशारे पर चल रहा है?
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— Shadab Chauhan شاداب چوہان (@shadab_chouhan1) June 29, 2025
रैली में लाखों की भीड़ के बावजूद AIMPLB का कोई बड़ा पदाधिकारी मंच पर क्यों नहीं दिखा? अब तक इस आंदोलन की अगुवाई करने वाले असदुद्दीन ओवैसी ने पटना आने की बजाय महाराष्ट्र के परभणी में एआईएमआईएम की सभा को तरजीह दी। यदि वक्फ का मुद्दा वास्तव में बड़ा है, तो क्या ओवैसी अपनी पार्टी की सभा को टाल नहीं सकते थे?

रैली में न तो जमाअत-ए-इस्लामी हिंद का कोई शीर्ष चेहरा नजर आया और न ही जमीयत उलेमा-ए-हिंद का कोई प्रभावशाली नेता। यही नहीं, जमाअत की सोशल मीडिया गतिविधियों में भी पटना की इस रैली का कोई उल्लेख नहीं किया गया, जबकि सामान्यतः वक्फ से जुड़ी गतिविधियों को ये संस्थाएं प्रचारित करती हैं। सवाल उठता है कि क्या मुस्लिम नेतृत्व में वक्फ आंदोलन को लेकर अंदरूनी असहमति है?
आंदोलन की अगुवाई इमारत-ए-शरिया के अमीर मौलाना फैसल रहमानी ने की, जो शुरू से ही वक्फ संशोधन विधेयक के प्रबल विरोधी रहे हैं। परंतु चूंकि यह कार्यक्रम इमारत के नेतृत्व में हुआ, इसलिए अन्य बड़े मुस्लिम संगठनों ने इससे दूरी बना ली। मंच पर राजनीतिक उपस्थिति हावी रही—राजद, कांग्रेस और एआईएमआईएम के नेताओं को बोलने का अवसर मिला, लेकिन स्पष्ट रूप से मंच राजद के तेजस्वी यादव के वर्चस्व में रहा।

तेजस्वी ने वक्फ के मंच को एक राजनीतिक अवसर में बदलते हुए घोषणा की कि यदि महागठबंधन की सरकार आती है तो वे वक्फ अधिनियम को “कूड़ेदान में फेंक देंगे”। हालांकि यह केंद्रीय कानून है और राज्य सरकार के बस में इसे रद्द करना संभव नहीं, फिर भी तेजस्वी ने एनडीए पर हमला बोला और रैली को राजनीतिक संदेश देने का माध्यम बना डाला।
कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद भी मंच पर मौजूद थे, जबकि कार्यक्रम में विभिन्न दलों के प्रतिनिधि काली पट्टी बांधकर विरोध दर्ज कराने पहुंचे। रैली को ‘वक्फ बचाओ, संविधान बचाओ’ का नाम दिया गया, परंतु पर्सनल लॉ बोर्ड की नेतृत्वहीनता और मुस्लिम संगठनों की आपसी दूरी ने इसकी एकता को सवालों के घेरे में डाल दिया।
इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में फैसल रहमानी ने साफ़ कहा कि केंद्र सरकार के वक्फ संशोधन विधेयक के खिलाफ़ अब तक उनके 300 से अधिक अभ्यावेदनों को सरकार ने अनदेखा किया है। उन्होंने इसे “तर्कहीन” और “संविधान विरोधी” बताया, जो धार्मिक स्थलों और मुस्लिम विरासत को हड़पने की कोशिश जैसा है।

उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि पटना के मौलाना मजहरुल हक विश्वविद्यालय में 88% छात्र हिंदू हैं और हजारों शैक्षणिक, चिकित्सा और सामाजिक संस्थान वक्फ संपत्तियों पर चल रहे हैं, जिससे सभी धर्मों के लोग लाभान्वित हो रहे हैं। “अगर हिंदू किसी अच्छे कार्य के लिए ज़मीन दान कर सकते हैं, तो मुसलमान क्यों नहीं?” रहमानी ने तर्क दिया।
उन्होंने यह भी कहा कि इस कानून से अशोक स्तंभ या अन्य ऐतिहासिक धरोहरों पर भी सवाल खड़े किए जा सकते हैं। “यह कानून समाज में फूट डालने वाला है,” उन्होंने कहा। “जनता की ताकत अगर तीन कृषि कानूनों को रद्द करवा सकती है, तो यह आंदोलन भी केंद्र को झुकाने में सफल होगा।”

बिहार में मुस्लिम आबादी 17% से अधिक है, जो सीमांचल के किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया, अररिया सहित कई जिलों में केंद्रित है। ऐसे में यह आंदोलन चुनावी समीकरणों को भी प्रभावित कर सकता है।
रैली के समय और इरादे पर भी सवाल उठे हैं। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इस मुद्दे को उछालने को लेकर राजनीतिक मंशा को नकारा नहीं जा सकता। इमारत-ए-शरिया ने मार्च में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इफ्तार भोज का बहिष्कार कर पहले ही स्पष्ट संकेत दे दिए थे कि मुस्लिम समाज की पारंपरिक सत्ता से दूरी बढ़ रही है।
बहरहाल, पटना की वक्फ रैली एक ओर जहां मुस्लिम समाज में वक्फ संशोधन को लेकर व्यापक असंतोष और जागरूकता का संकेत देती है, वहीं दूसरी ओर यह भी उजागर करती है कि इस संघर्ष में नेतृत्व का संकट और एकता की कमी अब भी गंभीर चुनौती बनी हुई है। वक्फ आंदोलन को यदि वास्तव में मुकाम तक पहुंचाना है तो उसे संकीर्ण संगठनात्मक व राजनीतिक दायरे से बाहर निकालकर एक समन्वित और राष्ट्रव्यापी जन-आंदोलन का रूप देना होगा।
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