UCC पर मुस्लिम संगठनों के कड़े तेवर : जमीयत उलेमा हिंद ने भी आपत्ति दर्ज कराई, फिरंगी महली बोले-यह इस्लामिक मान्यताओं के खिलाफ
मुस्लिम नाउ ब्यूरो, नई दिल्ली
लगता है समान नागरिकता कानून बनाने का प्रयास केंद्र की भाजपा सरकार को महंगा पड़ सकता है. इसके खिलाफ जितनी तेजी से मुस्लिम संगठन गोलबंद होने लगे हैं और इसे किसी भी कीमत पर लागू नहीं होने देने पर आमादा हैं, उससे लगता है कि देश में जल्द ही हंगामी सूरत बनने वाली है.
संशोधित नागरिकता कानून का मामला अभी ठंडा नहीं पड़ा है. चूंकि इस मामले में केंद्र सरकार शांत है, इसलिए इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ने वाले भी खामोश बैठे हैं. मगर जिस तरह से समान नागरिता कानून लाने को लेकर अकुलाहट दिखाई जा रही है, वैसे-वैसे माहौल भी गरमार है. यहां तक कि विधि आयोग में इसके प्रति ऐतराज जताने के साथ ही मुस्लिम संगठनों के बैठकों का दौर भी बढ़ने लगा है. कई आदिबासी संगठनों ने सड़कों पर उतरकर आंदोलन भी छेड़ दिया है.
इस बीच जमीयत उलेमा हिंद की ओर से भारत के विधि आयोग को भेजे गए मसौदे में कहा गया है कि नागरिक संहिता मुसलमानों के लिए अस्वीकार्य है. देश की एकता और अखंडता के लिए हानिकारक है. समान नागरिक संहिता केवल मुसलमानों की ही नहीं बल्कि देश की भी समस्या है. समान नागरिक संहिता के संबंध में सरकार को सभी धर्मों के नेताओं और सामाजिक-आदिवासी समूहों के प्रतिनिधियों से परामर्श करना चाहिए. उन्हें विश्वास में लेना चाहिए, यही लोकतंत्र की आवश्यकता है.
जमीयत उलेमा हिंद का कहना है कि 6 जुलाई 2023 को समान नागरिक संहिता पर फिर से बहस शुरू होने को हम एक राजनीतिक साजिश का हिस्सा मानते हैं. यह समस्या सिर्फ मुसलमानों की नहीं, सभी भारतीयों की है. हम अपनी प्रैक्टिस करते रहे हैं. सरकारें आईं और गईं लेकिन भारतीय अपने धर्म पर जिए और मरे. इसलिए हम किसी भी हालत में अपने धार्मिक मामलों और इबादत पद्धति से समझौता नहीं करेंगे. कानून के दायरे में अपने धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए हर संभव कदम उठाएंगे.
उन्हांेने कहा कि सवाल मुसलमानों के पर्सनल लॉ का नहीं है. देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान को यथावत बनाए रखने का है. संविधान के अनुच्छेद 25 ने हमें यह आजादी दी गई है, समान नागरिक संहिता मुसलमानों के लिए अस्वीकार्य है और देश की एकता और अखंडता के लिए हानिकारक है.
जमीयत उलेमा हिंद की ओर से भारत के विधि आयोग को भेजे गए मसौदे में कहा गया है कि समान नागरिक संहिता शुरू से ही एक विवादास्पद मुद्दा रहा है. जनजातियों के लोग अपने धर्म की शिक्षाओं का पालन करके शांति और एकता के साथ रह रहे हैं. उन्होंने केवल धार्मिक स्वतंत्रता का आनंद लिया है, लेकिन कई चीजों में एकरूपता न होने के बावजूद, उनके बीच कभी कोई मतभेद नहीं हुआ. न ही उनमें से किसी ने भी कभी दूसरे के धार्मिक विश्वासों और रीति-रिवाजों पर आपत्ति जताई. भारतीय समाज की यही विशेषता इसे अलग बनाती है. यह सदियों से अस्तित्व में है. समान नागरिक संहिता लागू करने का क्या औचित्य हो सकता है? जब पूरे देश में नागरिक कानून एक जैसा नहीं है, तो पूरे देश में एक पारिवारिक कानून लागू करने पर जोर क्यों दिया जा रहा है?
अंत में उन्होंने कहा कि हम हुक्मरानों से सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि कोई भी फैसला नागरिकों पर नहीं थोपा जाना चाहिए. कोई भी फैसला लेने से पहले आम सहमति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए, ताकि फैसला सभी को स्वीकार्य हो. समान नागरिक संहिता के सन्दर्भ में हमारा यह भी कहना है कि इस पर कोई भी निर्णय लेने से पहले सरकार को देश के सभी धर्मों के नेताओं और सामाजिक एवं आदिवासी समूहों के प्रतिनिधियों से परामर्श करना चाहिए और उन्हें विश्वास में लेना चाहिए. लोकतंत्र की आवश्यकता है. है.
जमीयत उलेमा हिंद समान नागरिक संहिता का विरोध करती है. यह संविधान के अनुच्छेद 25, 26 में नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता के पूरी तरह से खिलाफ है. भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि देश का अपना कोई धर्म नहीं ह. यह सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करता है. धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता है. देश के प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता है. एक बहुलवादी समाज में, जहां सदियों से विभिन्न धर्मों के अनुयायी अपने धर्मों की शिक्षाओं का पालन करते हुए शांति और एकता के साथ रह रहे हैं, समान नागरिक संहिता लागू करना बहुत आश्चर्यजनक है. संविधान के अनुच्छेद 44 की आड़ में बहुसंख्यकों को गुमराह करने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा रहा है. कहा जाता है कि संविधान में ऐसा कहा गया है.हालांकि, आरआरएस के दूसरे नेता गुरु गोलवलकर ने खुद कहा था कि समान नागरिक संहिता भारत के लिए अप्राकृतिक है. इसकी विविधताओं के विपरीत है.
तथ्य यह है कि दिशानिर्देशों के संदर्भ में समान नागरिक संहिता का उल्लेख (सलाह) किया गया है, जबकि संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी दी गई है. संविधान के अध्याय 3 के तहत सूचीबद्ध मौलिक प्रावधानों में, कोई भी संस्था, चाहे संसद हो या सुप्रीम कोर्ट, उसे बदलाव का अधिकार नहीं है. संविधान का विकास आजादी के बाद हुआ, जबकि इतिहास बताता है कि इस देश में लोग सदियों से अपने धार्मिक सिद्धांतों का पालन करते आ रहे हैं. कभी कोई असहमति या तनाव नहीं हुआ. दरअसल एक खास मानसिकता के लोग यह कहकर बहुसंख्यक वर्ग को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं कि समान नागरिक संहिता संविधान का हिस्सा है. जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है.
देश में कानून व्यवस्था की स्थिति बनाए रखने के लिए भारतीय दंड संहिता के प्रावधान हैं. इनके तहत विभिन्न अपराधों के लिए सजा दी जाती है. देश के सभी नागरिक इसके दायरे में आते हैं, लेकिन देश के अल्पसंख्यक, जनजाति और कुछ अल्पसंख्यक सहित अन्य समुदायों को धार्मिक और सामाजिक कानून के तहत स्वतंत्रता दी गई है. विभिन्न धार्मिक समुदायों और समूहों की पहचान धार्मिक पारिवारिक और सामाजिक नियमों से संबंधित है.
समान नागरिक संहिता मुसलमानों को स्वीकार्य नहीं : मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली
इस बीच मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली ने शुक्रवार को राज्य भर के मस्जिदों के इमामों से अपील की कि वे लोगों को समान नागरिक संहिता के खिलाफ अपनी राय विधि आयोग को भेजने के लिए सूचित करें. उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमानों को ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड की अपील पर अमल करना चाहिए. इसका विरोध कैसे करना है इसकी भी जानकारी दी जानी चाहिए.
मौलाना फिरंगी महली ने कहा कि समान नागरिक संहिता मुसलमानों को मंजूर नहीं. उन्होंने कहा कि यूसीसी से इस्लामिक शरीयत पर असर पड़ेगा. मौलाना ने कहा कि इसका असर सिर्फ मुसलमानों पर ही नहीं, देश के अन्य लोगों पर भी पड़ेगा. मौलाना ने कहा कि देश में समान नागरिक संहिता की जरूरत नहीं है. उन्होंने कहा कि अगर यूसीसी लागू हुआ तो इसका असर मुस्लिम पर्सनल लॉ पर पड़ेगा. जुमे की नमाज से पहले उन्होंने राज्य की सभी मस्जिदों के इमामों से अपील की कि वे उपदेश देने से पहले लोगों को समान नागरिक संहिता के बारे में बताएं.
मौलाना फरंगी महली ने कहा कि लोगों को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए. समान नागरिक संहिता को ईमेल या पोस्ट के जरिए लॉ कमीशन को अपनी राय भेजनी चाहिए. इससे मुस्लिम समाज पर असर पड़ेगा. गौरतलब है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने हाल में एक संदेश साझा कर लोगों से इसे लॉ कमीशन को भेजने का आग्रह किया है.
जमीयत उलेमा हिंद की ओर से भारत के विधि आयोग को भेजे गए मसौदे में कहा गया है कि समान नागरिक संहिता शुरू से ही एक विवादास्पद मुद्दा रहा है. जनजातियों के लोग अपने धर्म की शिक्षाओं का पालन करके शांति और एकता के साथ रह रहे हैं. उन्होंने केवल धार्मिक स्वतंत्रता का आनंद लिया है, लेकिन कई चीजों में एकरूपता न होने के बावजूद, उनके बीच कभी कोई मतभेद नहीं हुआ. न ही उनमें से किसी ने भी कभी दूसरे के धार्मिक विश्वासों और रीति-रिवाजों पर आपत्ति जताई. भारतीय समाज की यही विशेषता इसे अलग बनाती है विश्व के सभी देशों से. यह सदियों से अस्तित्व में है.