मुसलमानों के खिलाफ सांस्कृतिक युद्ध: सौ साल की साजिश का अंतिम चरण?
मुस्लिम नाउ विशेष
कारवां में 04 अप्रैल 2022 को धीरेन्द्र कुमार झा का एक लेख प्रकाशित हुआ था: ‘मुसलमानों को हिंदुओं के अधीन रखने वाले गोलवलकर के विचारों को लागू करने जा रहा संघ’।
इस लेख में कुछ पुस्तकों के तथ्य प्रस्तुत किए गए थे। आगे बढ़ने से पहले, लेख में दर्ज कुछ बातों को यहां रखा जा रहा है। एक जगह एक पुस्तक का हवाला देते हुए लिखा गया है—
“इस दृष्टिकोण से, जिसे चतुर पुराने राष्ट्रों के अनुभव की स्वीकृति मिली है, हिंदुस्तान में रहने वाली विदेशी नस्लों को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा अपना लेनी चाहिए, हिंदू धर्म के प्रति आदर और सम्मान करना सीख लेना चाहिए, हिंदू नस्ल और संस्कृति को गौरवान्वित करने वाले विचारों को अपना लेना चाहिए और अपने पृथक अस्तित्व को हिंदू नस्ल में पूरी तरह समर्पित कर देना चाहिए, या पूर्ण रूप से हिंदू राष्ट्र के अधीन रहते हुए देश में टिके रहना चाहिए। ऐसा करते समय उन्हें न तो किसी तरह का दावा करना होगा, न किसी तरह का कोई विशेषाधिकार मिलेगा, और किसी तरह के सुविधाप्राप्त व्यवहार की तो बात दूर, उन्हें एक नागरिक का भी अधिकार प्राप्त नहीं होगा। उनके सामने इसके अलावा और कोई चारा नहीं है।”
इसी लेख में आगे कहा गया है—
क्या भारत के विभाजन के बाद जो यहां रह गए हैं, वे बदले हैं? क्या 1946–47 में व्यापक स्तर पर हुए अभूतपूर्व दंगे, लूटपाट, आगजनी, बलात्कार और सभी प्रकार के सामूहिक दंगों के परिणामस्वरूप उनकी पुरानी दुश्मनी और जानलेवा मनोदशा अब बदल गई है? यह विश्वास करना आत्मघाती होगा कि वे पाकिस्तान के निर्माण के बाद रातों-रात देशभक्त हो गए हैं। इसके विपरीत, पाकिस्तान के निर्माण से मुस्लिम खतरा सौ गुना बढ़ गया है, जो हमारे देश पर उनके भविष्य के सभी आक्रामक हमलों के लिए एक उत्तोलक बन गया है। बल्कि पूरे देश में ही, जहां कहीं भी कोई मस्जिद या मुस्लिम मोहल्ला हो, वहां मुस्लिम सोचते हैं कि यह उनका अपना स्वतंत्र क्षेत्र है। अगर कभी संगीत और गायन के साथ हिंदुओं का जुलूस निकलता है, तो वे यह कहते हुए क्रोधित हो जाते हैं कि उनकी धार्मिक संवेदनाएं आहत हुई हैं। अगर उनकी धार्मिक भावनाएं इतनी संवेदनशील हो गई हैं कि मधुर संगीत से आहत हो जाती हैं, तो वे अपनी मस्जिदों को जंगलों में क्यों नहीं ले जाते और वहीं शांति से प्रार्थना करते हैं?

अब पिछले दस वर्षों में मुसलमानों के खिलाफ लिए गए फैसलों पर एक नजर डाल लें—इन फैसलों में प्रमुख रूप से थे: अनुच्छेद 370, सीएए-एनआरसी, तीन तलाक, बाबरी मस्जिद-आयोध्या विवाद, शादी की समय सीमा बढ़ाना, खास प्रदेशों में यूसीसी, वक्फ संशोधन बिल, मदरसों के खिलाफ कार्रवाई आदि।
अब थोड़ा नजर डाल लेते हैं इस दौरान खड़े किए गए विवादों की ओर: पैगंबर मोहम्मद साहब को गाली देना, धार्मिक जुलूस और अतिक्रमण के बहाने मस्जिदों और दरगाहों पर हमले, मस्जिद-दरगाहों के मामले में अदालत में जाना, मुस्लिम सड़कों, भवनों, स्टेशनों के नाम बदलना, मस्जिद-दरगाह के नीचे मंदिर खोजने, हिजाब के मामले को तूल देकर अदालत तक पहुंचाना आदि।
आपको क्या लगता है—कारवां के लेख में दर्ज बातें और ऊपर उल्लेख किए गए इन तथ्यों में कोई जुड़ाव है?
इस सवाल पर आने से पहले हालिया वक्फ बिल को लेते हैं। एक राजनीतिक विश्लेषक का कहना था—अभी क्यों वक्फ संशोधन बिल लाया गया? अब से पहले भाजपा दो टर्म फुल मेजोरिटी में थी, तब क्यों नहीं यह बिल लाया गया? जबकि अभी उसे नीतीश कुमार, चिराग पासवान, चंद्रबाबू नायडू, देवगौड़ा के सहयोग से सरकार चलानी पड़ रही है।
इस सियासी गणित को समझने के लिए वक्फ संशोधन बिल के पास होने के बाद के हालात पर नजर डालें। देश का तमाम मुसलमान इन तथाकथित सेक्युलर पार्टियों के पुरोधाओं से नाराज है और शायद अगले चुनाव में इनका बहिष्कार कर दे। जबकि ये पार्टियां बिना मुसलमानों के सत्ता या सियासत में बची रह ही नहीं सकतीं। यदि इन्हें मुसलमानों का वोट नहीं मिलेगा तो क्या होगा? इनका वजूद खत्म! यानी एक फैसले से चार बड़े धर्मनिरपेक्ष दलों का अंत।

कांग्रेस का वजूद अपने कर्मों से पहले ही ढीला हो चुका है। बीजू जनता दल जैसे सेक्युलर दल बुरी तरह हार के बाद खतरे में हैं। ले-देकर ममता, आरजेडी, सपा, बादल,बसपा जैसे मुसलमानों की चिंता करने वाले दल बचे हैं, पर उन पर इस कदर कानून और ईडी का शिकंजा है कि वे कानूनी उलझनों में ही फंसे रहते हैं। दल को विस्तार देने के लिए फंसे रहते हैं।
इस संदर्भ में तमाम मीडिया रिपोर्ट का अध्ययन करें तो कई चीजें अपने आप स्पष्ट हो जाएंगी’Iसौ साल की योजना को सिरे चढ़ाने और देश को अलग पहचान दिलाने के लिए कई संगठन पिछले बीस-पचीस साल से काम कर रहे हैंI इसके पीछे कई सेवानिवृत लोगों का दिमाग्र हैI ऐसे संगठनों ने ही पहले अरविंद केजरीवाल को सत्ता में लगायाI जब वे सेक्यूलर बनने लगे तो उन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया गयाI आपको क्या लगता है कश्मीर से अनुच्छेद 370 यूं हीं हटा दिया गया ? आप गलत हैं. इसपर बजाब्ता रिसर्च हुआI अध्ययान के लिए कुछ लोग वर्षों तक वहां काम करते रहेI कुछ खास व्यक्ति वहां प्लांट किए गए. योजना सिरे चढ़ाने से पहले कई बड़ी घटनाएं हुईंI फिर महबूबा से पीगें बढ़ाई गईंI उसके बाद जो कुछ हुआ वह सबके सामने है. सौ साल के पुराने सिद्धांत में अंतरराष्ट्रीय नीतियों में भी कुछ परिवर्तनन किए गए हैंI
दोनों सदनों में वक्फ संशोधन बिल पास होने के बाद एक और उल्लेखनीय घटना हुई—मुसलमान ही मुसलमान से लड़ रहा है। बड़ी ही सफाई से सूफीवाद और पसमांदा को आगे बढ़ाकर मुसलमानों को बांटने का खेल खेल दिया गया।
आपको क्या लगता है—यहां तक पहुंचने के लिए कुछ खास लोगों ने अपनी योजना पर कितना समय लगाया होगा और क्या-क्या किया होगा?
आज मीडिया जो एक खास लाइन बोलता है, क्या यूं ही? विरोध में बोलने वाले मीडिया को हाशिए पर धकेल दिया गया, वह भी बिना किसी योजना के?
छोटी-बड़ी बातों पर मुसलमानों को जेल में डालने, मकानों को ढहाने का खेल पिछले दस वर्षों से क्या यूं ही चल रहा है? क्या इसका किसी षड्यंत्र से कोई नाता नहीं?कुरान और इतिहास की लगत ढंग से व्याख्या कर मुसलमानों को आंतकवादी और मुस्लिम राजाओं को कूर बताने का खूल यूं हो रहा है ?
वक्फ संशोधन बिल पास होने के बाद मुसलमानों में उबलते लावा को देखते हुए महाराष्ट्र के बीजेपी नेता संजय निरुपम का यह कहना—”सीएए जैसे आंदोलन के बारे में सोचा तो जलियांवाला बाग बना देंगे”, क्या इस बयान का कोई निहितार्थ नहीं है?
सुप्रीम कोर्ट के सर्वोच्च जज के घर में पीएम मोदी का जाना, पूजा के लिए जाना, और मुसलमानों के घाटे वाले मामले में तुरंत फैसला देना जबकि कई अन्य मामलों को वर्षों से लटकाए रखना—क्या यह किसी खास रणनीति का हिस्सा नहीं है?
शिवसेना के संजय निरुपम कह रहे हैं कि वक़्फ़ बिल के विरोध में अगर कोई शाहीन बाग़ बनाने कि कोशिश करेगा, वो ये ना भूले कि कभी भी उनका जालियाँ वाला बाग़ बन सकता है। pic.twitter.com/1XtbkefQ0q
— Ashraf Hussain (@AshrafFem) April 4, 2025
कांग्रेस के जयराम रमेश कहते हैं—2019 को लेकर कांग्रेस पार्टी की चुनौती पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है।
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में सरकार द्वारा वर्ष 2019 में संशोधन किए गए। इन संशोधनों के खिलाफ कांग्रेस पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसकी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में जारी है।
चुनाव आचरण नियमों (2024) में किए गए संशोधनों की वैधता को चुनौती देने वाली कांग्रेस की याचिका पर भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो रही है।
1991 के पूजा स्थलों (विशेष प्रावधान) अधिनियम की भावना और प्रावधानों की रक्षा के लिए कांग्रेस का हस्तक्षेप सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।
CAA, 2019 को लेकर कांग्रेस पार्टी की चुनौती पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है।
— Jairam Ramesh (@Jairam_Ramesh) April 4, 2025
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में सरकार द्वारा वर्ष 2019 में संशोधन किए गए। इन संशोधनों के खिलाफ कांग्रेस पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। जिसकी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में जारी है।…
क्या इसको लेकर यूं ही सुनवाई हो रही है? सुप्रीम कोर्ट के मना करने के बावजूद मस्जिदों और दरगाहों के नीचे मंदिर खोजने की कार्रवाई के पीछे क्या कोई रणनीति नहीं है?
भारत के 22 करोड़ मुसलमान आज सियासी तौर पर पंगु हो चुके हैं। सत्ता में उनका कोई दखल नहीं है। यहां तक कि अल्पसंख्यक मंत्रालय भी कोई और चला रहा है।
क्या ऊपर कारवां में दर्ज बातें इन हालात से मेल नहीं खातीं?
मुसलमानों के अधिकांश अदबी, मजहबी संस्थान आज खौफ के साए में अपना वजूद तलाश रहे हैं। कुछ पर ताला लगा दिया गया है, और उनके संचालक भूमिगत जीवन जी रहे हैं या जेल में सड़ रहे हैं—क्या यह सब यूं ही हो गया?
आज कई सोशल मीडिया हैंडल हर मुस्लिम विरोधी फैसले की हिमायत करते नजर आ रहे हैं—क्या यह बेमानी है?
देश के मुसलमानों के नाम पर वाबस्ता बड़े शिक्षण संस्थानों में एक खास विचारधारा वाले मुसलमानों को मुखिया बनाया गया—क्या इसके पीछे कोई रहस्य नहीं?
दरअसल, इन सबका लुब्बोलुबाब यह है कि मुसलमानों की पहचान, संस्कृति, सामाजिक और मजहबी स्तर को एक पिंजरे में डालने के लिए एक युद्ध चल रहा है। इसे आप सांस्कृतिक युद्ध भी कह सकते हैं।
हर युद्ध में षड्यंत्र होता है। कानूनी कार्रवाई होती है। घुसपैठिए को भेजकर संगठन को कमजोर करने की साजिश होती है। भ्रम फैलाने के लिए मीडिया का गलत इस्तेमाल होता है। दो देशों के युद्ध में बम-गोलियां चलती हैं, पर सांस्कृतिक युद्ध में विस्फोटक की जगह कानून को हथियार बनाया जाता है, ताकि दुश्मन आसानी से कमजोर हो सके।
पिछले सौ वर्षों से मुसलमानों के खिलाफ एक बड़े षड्यंत्र की पटकथा तैयार होती रही। और वह सच्चर कमेटी से अपनी स्थिति का जवाब ही मांगता रहा। हालांकि जवाब मिलने के बावजूद कुछ हुआ नहीं।
इस सौ वर्षों में आम मुसलमान तो रोजी-रोटी के जुगाड़ और माहौल रोजगार लायक बनाए रखने की मशक्कत में लगा रहा, और मुस्लिम नेता अलग-अलग जगह से मलाई खाने में।
समय रहते चिट्ठी और फोन से तलाक देने का मसला नहीं सुलझाया तो दूसरा वर्ग अपने लाभ के लिए इसमें कूद पड़ा। इसी तरह वक्फ की कुछ संपत्तियों को खुर्दबुर्द करने में लगे रहे तो दूसरों को उनकी तमाम इस्लामी व्यवस्थाओं में दखल देने का मौका मिल गया। आज यह कानून बन चुका है और अब अपने बचाव में सड़क से लेकर अदालत तक अपनी लड़ाई लड़ते रहिए।
हालांकि, समय अभी गया नहीं है। आप दुश्मन की चाल समझ चुके हैं। सौ साल का एजेंडा उसका पूरा हो चुका है। एजेंडे की फेहरिस्त में दो-चार मुद्दे और हो सकते हैं, उसकी परवाह न करें। इकट्ठा हों और हर स्तर पर इस षड्यंत्र से निपटने का रास्ता ढूंढें। ऊर्जावान लोगों को आगे लाएं। बुजुर्ग सलाहकार बनें। हर स्तर पर संघर्ष करें। और सबसे पहले साजिश में शामिल मुस्लिम चेहरों को बेनकाब करें। नहीं तो जीतन राम मांझी जैसे तथाकथित लोग आपको कठमुल्ला साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।
ध्यान रहे—भारत के मुसलमानों को पड़ोसी देश के अल्पसंख्यकों जैसा बनाने की साजिश इसलिए भी कामयाब नहीं होगी कि विश्व में मुसलमान आबादी के लिहाज से दूसरे नंबर पर हैं, और भारत में भी। यहां तक कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक रूप से भी भारत का मुसलमान बेहद मजबूत है।
इससे भी बड़ी बात यह कि उनके खिलाफ युद्ध करने वालों से कहीं अधिक और कई गुणा बड़ी जनसंख्या धर्मनिपरेक्ष लोगों की तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मुसलमानों के साथ खड़ी है। बस आपको योजनाबद्ध होकर सांस्कृतिक युद्ध करने वालों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना है।
इसके लिए सबसे पहले मस्जिद जाना शुरू कीजिए, बिना किसी फिरके की भावना के। यही किया तो आपका मसला चुटकियों में हल हो जाएगा। उन्होंने भी सबसे पहले आपके मतभेदों को आपके खिलाफ इस्तेमाल किया है।