जब गांधीजी ने अबूबक्र और उमर रज़ि. को बताया आदर्श शासक, जानें 1937 का ऐतिहासिक संदर्भ
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✍🏻 रुख़सार रहमान

— महात्मा गांधी का नाम जब भी लिया जाता है, सत्य, अहिंसा और सरल जीवनशैली का स्मरण स्वतः होता है। लेकिन बहुत कम लोगों को यह जानकारी है कि गांधीजी ने इस्लामी इतिहास के महान खलीफाओं — हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) और हज़रत उमर फारूक (रज़ि.) — को भी ईमानदार और विनम्र नेतृत्व का प्रतीक बताया था।
गांधीजी ने यह विचार 27 जुलाई 1937 को प्रकाशित अपने प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्र ‘हरिजन’ में लिखे थे। यह वह दौर था जब भारत में 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत चुनाव के बाद, पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को ब्रिटिश राज के भीतर कुछ प्रांतों में सरकार बनाने का अवसर मिला था। इस ऐतिहासिक क्षण में गांधीजी नेताओं को सत्ता के मोह और भोग-विलास से बचाने के लिए उन्हें इस्लामी खलीफाओं के सरल जीवन से प्रेरणा लेने की सलाह दे रहे थे।
गांधीजी का स्पष्ट संदेश:
हरिजन के उस अंक में गांधीजी ने लिखा था:
“मैं आपके सामने श्रीरामचंद्र या कृष्ण का उदाहरण नहीं रख सकता, क्योंकि वे ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं माने जाते। मैं विवश हूं कि आपके सामने अबूबक्र और उमर (रज़ि.) का नाम प्रस्तुत करूं। वे विशाल साम्राज्य के शासक थे, फिर भी उन्होंने सादगीपूर्ण जीवन जिया।”

(स्रोत: हरिजन, दिनांक: 27.07.1937)
इस कथन से स्पष्ट होता है कि गांधीजी धर्मनिरपेक्ष सोच के साथ ऐतिहासिक इस्लामी नेतृत्व को एक नैतिक मानदंड के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि धार्मिक विविधता के बावजूद, नैतिक मूल्यों की सार्वभौमिकता को अपनाया जा सकता है।
इस्लाम से गांधीजी का संबंध
गांधीजी केवल खलीफाओं की प्रशंसा तक सीमित नहीं रहे। उनके विचारों और लेखनों में अक्सर क़ुरआन, पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.), और उनके सहाबा (साथीगण) के उल्लेख मिलते हैं। उन्होंने धार्मिक संवाद को सुदृढ़ करने हेतु सभी धर्मों की शिक्षाओं को आत्मसात किया।

क्या था ‘हरिजन’?
‘हरिजन’ गांधीजी का अंग्रेज़ी भाषा का साप्ताहिक अख़बार था, जिसकी शुरुआत 1933 में अछूतों (दलितों) के अधिकारों की वकालत के लिए की गई थी। इसका उद्देश्य सामाजिक सुधार और नैतिक मूल्यों का प्रचार-प्रसार करना था। हिंदी संस्करण को ‘हरिजन सेवक’ और गुजराती संस्करण को ‘हरिजन बंधु’ नाम से जाना जाता था। यह अख़बार 1955 तक प्रकाशित होता रहा।
निष्कर्ष:
1937 में गांधीजी द्वारा हज़रत अबूबक्र और हज़रत उमर (रज़ि.) की सादगी और ईमानदारी को प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत करना इस बात का प्रमाण है कि सच्चा नेतृत्व किसी धर्म या जाति की सीमा में नहीं बंधा होता। आज जब राजनेताओं से नैतिक आचरण की अपेक्षा बढ़ती जा रही है, गांधीजी का यह सन्देश पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गया है।