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दारुल उलूम देवबंद में एक दिन में कितनी बनती हैं रोटियां ?

गुलरूख जहीन

दारूल उलूम देवबंद लगभग हमेशा सुर्खियों में रहता है. विशेषकर मेन स्ट्रीम मीडिया छवि बिगाड़ने के लिए इसके रिश्ते आतंकवाद से लेकर गजवा ए हिंद से जोड़ने में थोड़ा भी संकोच नहीं करती. अभी एक खुराफाती केंद्रीय अधिकारी की नोटिस को लेकर दारू उलूम देवबंद सुर्खियों में है, जिसे जमीयत उलेमा ए हिंद ने कानूनी नोटिस भेजा है.

बहरहाल, इन वाद-विवादों से इतर आज पाठकों को दारूल उलूम देवबंद से जुड़े ऐसे पहलू की जानकारी दी जा रही है, जिसके बारे में आम लोगों को बहुत मालूमात है. मगर यह तमाम जानकारियां हैं बहुत दिलचस्प. पढ़कर आपको भी  मजा आने वाला है.

दारूल उलूम के इस खास पहलू पर जानकारियां इकट्ठी करने के लिए सोशल मीडिया को काफी खंगाला गया, पर इसके बारे में बहुत कम लिखा-पढ़ा गया है. दारूल उलूम को लेकर सोशल मीडिया में ज्यादातर जानकारियां नकारात्मक ही हैं.

दरअसल, इस खास रिपोर्ट में आप से यह रू-ब-रू कराने की कोशिश है कि आखिर दारूल उलूम में कितने छात्र पढ़ते हैं और उनके खाने-पीने की व्यवस्था कैसे की जाती है ? छात्रों के हुजूम के लिए प्रतिदिन कितना खाना बनता है ? हालांकि इस बारे में हालिया जानकारी तो नहीं मिली, पर नई-पुरानी जानकारियों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि दारुल उलूम में रोजाना कितना खाना पकता होगा ? छात्रों को खाने में रोजाना क्या दिया जाता है और खाने के वितरण का क्या इंतजाम है ?

दारूल उलूम देवबंद में कितने छात्र पढ़ते हैं ?

पहले बात करते हैं दारूल उलूम देवबंद में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या की. सोशल मीडिया पर मौजूद कुछ व्लाॅगर के वीडियो से पता चलता है कि छह से सात साल पहले दारूल उलूम देवबंद में चार हजार छात्र तालीम लिया करते थे. जिस तरह जनसंख्या और दारूल उलूम में इन वर्षों मंे सुविधाएं बढ़ी हैं, उसे आप पुराने आंकड़ों में दो एक हजार छात्रों की तादाद और जोड़ सकते हैं.

दारूल उलूम देवबंद से पासआउट मुफ्ती मंसूर कासमी के दस महीने पुराने वीडियो के अनुसार अभी पांच हजार बच्चे इस अदारे में तालीम ले रहे हैं. जबकि यहां से 2012 में तालीम लेकर निकले मुफ्ती मामूर कासिमी आजपुरी अपने वीडियो में कहते हैं कि तब हदीस विभाग में 1200 और मिशकार्स शरीफ में 800 छात्र पढ़ा करते थे.’’ उन्हांेने ने अपने ब्लाॅग में तब दारूल उलूम देवबंद में 4000 बच्चांे के पढ़ने की जानकारी दी थी.

इस इस्लामी शिक्षण संस्थान में इफ्ता, अदब, तवफ्फुफ, तखस्सुस आदि की पढ़ाई होती है. यहां छात्रों का दाखिला टेस्ट के आधार पर होता है. दारूल उलूम के पूर्व छात्रों का कहना है कि टेस्ट के बाद बच्चों का दाखिला आंकों से ज्यादा उसके व्यापक सोच-समझ पर निर्भर करता है.

दारुल उलूम में अनाज का निजाम ?

सवाल उठता है कि जिस विशाल तालीमी इदारे में पांच से छह हजार छात्र तालीम ले रहे हों, उसका सालाना खर्च कितना होगा और यहां खाना-पीना कैसे मैनेज होता होगा ?इस अहम सवाल का जवाब है कि यह अदारा पूरे तौर पर लोगों की आर्थिक मदद पर निर्भर है. कुछ आर्थिक व्यवस्था दारूल उलूम देवबंद अपने स्तर पर भी करता है.

दारूल उलूम देवबंद के गल्ले का इंतजाम गांवों, शहरों और मस्जिदों के माध्यम से एकत्रित अनाज से होता है. दारुल उलूम में बोरा-कट्टा मरम्मत करने का एक पूरा विभाग है. यहां साल भर कट्टों की मरम्मत होती है. उसके बाद कटाई के सीजन में उन कट्टों को देशभर के चिन्हित गांवों, कस्बों और मस्जिदों को भेज दिया जाता है. वहां से गल्ला कट्टों में एकत्रित कर देवबंद पहुंचा दिया जाता है. अनाज सुरक्षित रखने के लिए यहां विशेष व्यवस्था की गई है.

सालाना कितना खर्च करता है दारुल उलूम देवबंद ?

दारूल उलूम के खर्च को लेकर हमेशा से लोगों में जिज्ञासा सी रही है. हर कोई जानना चाहता है कि इसका साला खर्च कितना है और यह कैसे मैनेज होता है ?आपसे पहले की कहा जा चुका है कि इसकी आमदनी का मुख्य स्रोत लोगों की आर्थिक मदद है. सोशल मीडिया पर मौजूद जानिकारियों और यहां से पढ़कर निकले छात्रों की बातचीत से मानें तो दारूल उलूम का खर्च एक करोड़ रूपये में नहीं, बल्कि करोड़ो में है.

मुफ्ती मामूर कासिम आजमपुरी के दावे के अनुसार, दारूल उलूम का 10 साल पहले साला खर्च 20 करोड़ रूपये था. यही नहीं यह प्रतिदिन खाने और वेतन पर पांच से सवा पांच लाख रूपये खर्च होते थे. अब इसमें कुछ लाख और जोड़ लें.

दिलचस्प बात यह है कि इन खर्चों में साल भर चलने वाले विकास कार्यों पर आने वाला खर्च शामिल नहीं है. इसके लिए अलग फंड है, जिसका इस्तेमाल दारूल उलूम देवबंद केवल विकास पर करता है.

दारुल उलूम देवबंद का खाना ऑर्गेनिक

दारूल उलूम देवबंद में भोजन व्यस्था कहीं से गड़बड़ न हो, इसका खासा ख्याल रखा जाता है. इसके अलावा यहां का भोजन खाकर छात्र अस्वस्थ्य न हों, इस पर खास ध्यान दिया जाता है. इसके पूर्व छात्रों की मानें तो यहां का खाना पूरी तरह से आर्गेनिक होता है. खाने में गलत मसाल न पड़े या रोटी के नाम पर छात्रों में बीमारी न बांटी जाए, इसके लिए दारूल उलूम ने खास इंतजाम किए हैं.

दारूल उलूम में ही आटा चक्की लगी है, जहां दिनभर गेहूं की पिसाई चलती रहती है. पूर्व छात्रों के अनुसार, बाजार के मुकाबले यहां का आटा बारीक नहीं होता, इसलिए यहां की रोटियां बेहद मुलायम होती हैं. यही नहीं दारूल उलूम देवबंद में मसाला पीसने की मशीन भी लगी हुई हैं. स्वास्थ्य का ध्यान में रखते हुए आटा भी मशीन से ही गूंदा जाता है. छात्रों को गोश्त देने के लिए अलग व्यवस्था है. कहा जाता है कि मुलायम गोश्त ही यहां पकते हैं.

 
दारूल उलूम देवबंद में रोजाना कितना बनता है खाना ?

खाने को लेकर इस दिलचस्प सवाल का जवाब हर कोई चाहता है कि दारुल उलूम देवबंद में रोजाना कितना खाना बनता है और खाना बनाने की क्या व्यवस्था है ?बता दें कि दारूल उलूम देवबंद में रोटियां सेंकने के लिए तेरह तंदूर बने हुए हैं. यहां रोजाना 13 हजार रोटियां बनती हैं. इतनी रोटियां यहां दो वक्त के लिए बनाई जाती हैं. इसके अलावा बिरयानी के 40 देग लगते हैं.

खाना बनाने के लिए यहां पूरी टीम काम करती है. इमरान यहां के बिरयानी एक्सपर्ट हैं, जबकि रोटियां तैयार करने की जिम्मेदारी अन्य शख्स को दी हुई है. रात का खाना तैयार करने का सिलसिला दोपहर दो बजे से शुरू होता है. इसी तरह दोपहर के खाने के इंतजाम के लिए तैयारियां सुबह से होती हैं.

दारुल उलूम देवबंद के छात्रों को कितना मिलता है खाना और कैसे मिलता है ?

दारूल उलूम देवबंद में छात्रों को सुबह का नाश्ता नहीं मिलता. इसका इंतजाम उन्हें अपने स्तर पर करना पड़ता है. यहां छात्रों को वजीफे भी दिए जाते हैं. आम तौर पर उससे ही वे रोजाना नाश्ते का इंतजाम करते हैं.रही बात, बच्चों को दोपहर और रात में कितना खाना मिलता है तो बता दूं कि एक टाइम में एक बच्चे को दो रोटियां और सालन मिलते हैं. दोपहर में रोटियों के साथ सालन और रात में दो रोटियों के साथ दाल दी जाती है.

रोटियां इतनी मोटी और बड़ी होती हैं कि दो रोटी एक बच्चा बहुत मुश्किल से खा पाता है. इसके अलावा सप्ताह में एक बार बच्चों को खाने में बिरयानी भी दी जाती है. बच्चों को महीने में कुल चार बार बिरयानी खाने में दी जाती है. बिरयानी एक बच्चे को तौल कर एक किलो मिलती है.

बच्चांे को खाना लेने के लिए पहले पर्ची लेनी होती है. बिना पर्ची के खाना नहीं मिलता. दारूल उलूम के किचन के पास ही पर्ची बांटने का दफ्तर है. खाना लेने केलिए बच्चांे को कतार में खड़ा होना होता है. खाना लेने के लिए बच्चे खुद के बर्तन का इस्तेमाल करते हैं. उन्हें सर्दी में कंबल, रजाई और तोशक भी तोहफे में दिए जाते हैं.

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