बाबू खान : सफेद टोपी, लंबी दाढ़ी और शिवभक्तों की सेवा से फैल रहा भाईचारे का संदेश
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मुस्लिम नाउ ब्यूरो, बागपत उत्तर प्रदेश
श्रावण का महीना। हवा में बेल-पत्तों की नमी, सड़क किनारे भगवा झंडे, मेरठ–बागपत–हरिद्वार मार्ग पर निरंतर बढ़ते कांवड़ियों के जत्थे—कंधों पर गंगाजल, होंठों पर ‘बम बम भोले’ के उछाह भरे जयकारे। इसी भीड़ में अचानक नज़र ठहर जाती है एक शख्स पर—सिर पर सफेद टोपी, सधी हुई लंबी दाढ़ी, सरल मुस्कान और हाथ में स्टेथोस्कोप। वह कांवड़ नहीं उठाए हुए, ना तिलक, ना भगवा गमछा—फिर भी उसकी आवाज़ सबसे बुलंद: “जय भोलेनाथ!” यह हैं डॉ. बाबू खान उर्फ बाबू मलिक, बागपत के ‘मानव सेवार्थ शिव सेवक’—जो कहते हैं, “मैं मरीज देखता हूँ, मज़हब नहीं।”
लगातार 23–24 सावन (स्थानीय लोग 24 कहते हैं, वे स्वयं 23 बताते हैं) से वे श्रावणी कांवड़ यात्रा के दौरान अपना निजी क्लिनिक पूरा सप्ताह बंद रखकर मुफ़्त मेडिकल सेवा शिविर चलाते हैं। शिव भक्तों के लिए उनकी यह मौन तपस्या किसी जलधारा की ताज़गी जैसी है—अनवरत, निरपेक्ष और शीतल।
एक कैंप जो दवा से आगे ‘दुआ’ बाँटता है
उनका शिविर सिर्फ़ ‘मेडिकल टेंट’ नहीं—यह थकान, निर्जलीकरण, छालों, मांसपेशियों के खिंचाव, लो ब्लड प्रेशर, शुगर फ्लक्चुएशन, हीट–कण्डीशनिंग व संक्रमण से जूझ रहे यात्रियों का तत्काल राहत केंद्र है। अंदर प्रवेश करते ही जड़ी-बूटी की हल्की खुशबू, एंटीसेप्टिक का व्यावहारिक गंध और बाहर लगी पीने के पानी की टंकियाँ एक साथ दिखाई देती हैं। मेज़ पर प्राथमिक उपचार किट—ड्रेसिंग पैड, गॉज़, बैंडेज रोल, आयोडीन सॉल्यूशन, ओरल रीहाइड्रेशन सॉल्ट, एनाल्जेसिक, एंटीबायोटिक, एंटी–फंगल क्रीम, एंटासिड, ग्लूकोज़ स्ट्रिप्स और स्पॉट ऑक्सीमीटर।
डॉ. खान अक्सर खुद घायल कांवड़िए के पैर को अपने हाथ से उठाकर फफोले पर मरहम लगाते हैं। कोई कहता है—“डॉक्टर साहब, हमने रोज़े में भी आपको सेवा करते देखा है”—तो वे धीमे स्वर में मुस्करा कर सिर्फ़ इतना भर कहते हैं, “दर्द रोज़ा–उपवास, मज़हब नहीं पूछता। दर्द बस राहत मांगता है।”
शिव सेवा समिति का सक्रिय स्तंभ
वे कांवड़ सेवा समिति के पदाधिकारी भी हैं। उनकी अपनी स्वयंसेवी टीम है—दो प्रशिक्षित सहयोगी कंपाउंडर, कुछ स्थानीय युवक, तीन छात्राएँ जो दवा वितरण रजिस्टर संभालती हैं, और दो वरिष्ठ ग्रामीण जो भीड़ में व्यवस्था बनाए रखते हैं। यह टीम हर वर्ष सूची सुधारती है—पिछले साल किन दवाओं की अधिक माँग हुई, इस बार किनकी मात्रा बढ़ानी है, कौन से लक्षण ट्रेंड में रहे—मसलन निर्जलीकरण बनाम वायरल बुखार।
क्यों छोड़ देते हैं अपना क्लिनिक?
“लाभ कहाँ?—यही लोग तो मेरे ‘मरीज–परिवार’ हैं,” वे कहते हैं। उनके अनुसार कांवड़ यात्रा आध्यात्मिक अनुशासन स्वयंसेवी स्वास्थ्य मॉडल का बड़ा प्रयोग भी है: “जिस रास्ते पर लाखों पांव एक दिशा में चलें, वहाँ चिकित्सक का न होना कमजोरी है—मैं बस उस कमी को भरता हूँ।”

सांप्रदायिक संवाद का जीवंत मंच
कई बार कट्टर स्वर वालों से कोई पूछ बैठता है—“क्यों करते हो?”—तो जवाब बहुत सीधा: “डॉक्टर हूँ। इंसानियत मेरा पेशा नहीं—मेरा प्रण है।” जब वे जोर से ‘हर हर महादेव’ का उद्घोष करते हैं तो आसपास खड़े कांवड़िए एक साथ ताली बजा उठते हैं। वही पल चोट, थकान, धार्मिक प्रतीक, सामूहिक चैतन्य—सबको एक समरस लय में बाँध देता है।
यह दृश्य एक ऐसे समय में प्रतीकात्मक शक्ति रखता है जब धार्मिक ध्रुवीकरण की खबरें सुर्ख़ियों पर छाई रहती हैं। डॉ. खान की मौजूदगी मानो कहती हो—“एकता की ख़बर भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी विभाजन की चेतावनी।”
स्वास्थ्य की सूक्ष्म चुनौतियाँ—उनका व्यावहारिक समाधान
कांवड़ मार्ग पर प्रचलित चोटें:
- फुट ब्लिस्टर (घर्षण + नमी)
- मांसपेशियों का ऐंठन (इलेक्ट्रोलाइट असंतुलन)
- लो शुगर/लो बीपी (अधिक पैदल यात्रा + अपर्याप्त भोजन)
- त्वचा फंगल संक्रमण (बारिश–पसीना–गंदी पट्टियाँ)
- ऊपरी श्वसन संक्रमण (धूल–नमी संक्रमण चक्र)
वे यात्रियों को तीन ‘मंत्र’ देते हैं: “हाइड्रेशन – विराम – स्वच्छता।” वे कई बार अनुशासन तोड़ते कांवड़ियों को विनम्रता से रोकते हैं: “तेज़ नहीं—संतुलित गति, तभी सुरक्षित पहुँचोगे।”
एक मुस्लिम चिकित्सक का ‘भोले’ से भावनात्मक रिश्ता?
उनसे पूछा गया—“आप ‘जय भोलेनाथ’ क्यों कहते हैं?” जवाब में वे हँसते हैं—“देखिए, सेवा भाषा नहीं देखती। जिस ऊर्जा से ये लोग तप कर रहे हैं, उसी ऊर्जा की लय पकड़ लेने से सेवा और सहज हो जाती है। भाव बोलने की वाणी ढूँढ लेता है।”
स्थानीय समाज की प्रतिक्रिया
दुकानदार निशुल्क नींबू–पानी भेजते हैं, ग्रामीण महिलाएँ रास्ते के किनारे छाँव का व्यवस्थापन करती हैं, और पुलिस–प्रशासन उनके शिविर को रूट मैप पर ‘प्राथमिक चिकित्सा बिंदु’ मानकर निर्देशित करते हैं। कई श्रद्धालु जाते-जाते दवा खर्च पूछते हैं—वे स्पष्ट शब्दों में मना कर देते हैं: “यह दान नहीं, दायित्व है।”
धर्म की सीमाएँ पिघलती हैं जब स्पर्श उपचार बनता है
जब सफेद टोपी वाला डॉक्टर किसी कांवड़िए के सूजे टखने पर बर्फ की सेक कर रहा होता है और युवक दर्द से कराहते हुए भी ‘हर हर…’ दोहराता है, तो दृश्य एक बड़े सांस्कृतिक वाक्य में बदल जाता है: यह भूमि अभी भी साझा करुणा की जड़ें सींच रही है।

कैंप से निकला व्यापक संदेश
- इंसान पहले, पहचान बाद में
- समर्पित पेशा—सामूहिक सद्भाव का वाहन
- सार्वजनिक धार्मिक आयोजनों में चिकित्सा सेवा—कॉमन सिविक ड्यूटी
- विरोधाभास तोड़ने का व्यावहारिक मॉडल—घोषणा नहीं, कर्म
बाबू खान का ‘सूत्र’
“मैं डॉक्टर हूँ—इंसान की सेवा मेरा धर्म, भाईचारा मेरी पहचान।”
यह सिर्फ़ कथन नहीं—दो दशक से अधिक के लगातार व्यवहार का प्रमाण-पत्र है।
क्यों ज़रूरी है ऐसी कहानियों का दर्ज होना?
क्योंकि सामूहिक स्मृति में यदि केवल तनाव दर्ज होगा तो भविष्य संदर्भहीन भय गढ़ेगा। जब हम डॉ. बाबू खान जैसी कहानियों को दस्तावेज़ बनाते हैं, तो आने वाली पीढ़ियों को बताते हैं कि भारतीय बहुलता किसी वैचारिक पर्चे का शब्द नहीं—जीते-जागते शिविर की धड़कन है, जहाँ ‘टोपी’ और ‘तिलक’ एक ही छाँव साझा करते हैं।
आख़िरी दृश्य
साँझ ढल रही है। दूर से ढोलक की थाप धीमी हो चली। रास्ते पर जले लैंपों के बीच से एक थका कांवड़िया लड़खड़ाता शिविर के भीतर आता है। डॉक्टर उसकी नब्ज़ जाँचते हैं, ग्लूकोज़ सॉल्यूशन थमाते हैं और मुस्कराकर बोलते हैं—“धीरे… अभी लंबा रास्ता है। भोलेनाथ धैर्य भी सिखाते हैं।” कांवड़िया दो घूँट लेकर हाथ जोड़ता है—“डॉक्टर साहब, आप भी भोले के ही दूत हो।”
और यही वाक्य इस पूरी कहानी का सार है। जहाँ सेवा है, वहाँ सेतु है। जहाँ सेतु है, वहाँ समाज बिखरता नहीं—और जहाँ समाज बिखरता नहीं, वहीं से नई आशा का रास्ता निकलता है।
यह सिर्फ़ एक डॉक्टर की गाथा नहीं—यह उस मूक धर्म की कथा है जिसका नाम है: इंसानियत।

