ईरान-इज़रायल युद्ध: मुसलमानों की बेबसी और इस्लामी देशों की खामोशी पर सवाल
मुस्लिम नाउ विशेष रिपोर्ट
ईरान-इज़रायल युद्ध ने एक बार फिर यह कड़वा सच उजागर कर दिया है कि आज यदि दुनिया के मुसलमान सबसे अधिक कहीं से ठगे जा रहे हैं, तो वह अपने ही तथाकथित इस्लामी मुल्कों के हाथों। चाहे बात अरब देशों की हो, तुर्किये की या पाकिस्तान की—इन सभी ने अपने स्वार्थ और सत्ता की राजनीति के लिए मुस्लिम उम्मत को केवल इस्तेमाल किया है। ये देश कभी इमदाद के नाम पर ग़रीबी को पालते हैं, तो कभी इस्लाम के दुश्मनों से अंदरखाने समझौते कर मुसलमानों को ही सूली पर चढ़ा देते हैं।
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ईरान और इज़रायल के बीच जारी संघर्ष में आज एक भी मुस्लिम देश खुलकर ईरान के साथ खड़ा नहीं है। जबकि ईरान वह अकेला देश है जो शिया-सुन्नी के फ़र्क के बिना हर उस अत्याचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाता है जो मुसलमानों पर ढाया जाता है। उसका यह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर रुख़ ही शायद उसे बाकी इस्लामी मुल्कों की नजर में असुविधाजनक बनाता है।
यह विरोधाभास तब और अधिक पीड़ा देता है जब हम देखते हैं कि पाकिस्तान, जो खुद को मुस्लिम दुनिया का मजबूत स्तंभ बताता है, अपने पड़ोसियों को परमाणु हथियारों की धमकी देता रहता है, लेकिन इज़रायल के मसले पर वह भी चुप्पी साध लेता है। वहीं, तुर्किये जैसे देश जो अक्सर ग़ाज़ा और कश्मीर के नाम पर भावनात्मक भाषण देते हैं, वास्तव में इज़रायल के साथ व्यापारिक और सामरिक संबंध बनाए रखते हैं। यह दोहरापन अब छिपा नहीं रह गया है।
ईरान, जो पश्चिमी सहायता के बिना भी आत्मनिर्भर रहकर आगे बढ़ रहा है, उसके खिलाफ़ अरब देशों की खामोशी समझ से परे है। युद्ध शुरू होते ही कुछ अरब देशों ने ईरानी विमानों को अपने वायुमार्ग तक में प्रवेश देने से मना कर दिया। जबकि ईरान ने हाल के वर्षों में इन्हीं देशों से रिश्ते सुधारने की भरपूर कोशिश की थी।
दूसरी ओर, कई मुस्लिम देश अब आधुनिकता और पर्यटक आकर्षण के नाम पर अपने पवित्र स्थलों के आसपास शराबखाने, सिनेमा और कैसीनो खोल रहे हैं। जबकि भारत जैसे देश में मंदिरों के आसपास मांस-मदिरा की बिक्री पर अब भी नैतिक नियंत्रण है। इस्लामी मूल्यों की दुहाई देने वाले देश ही सबसे पहले उन्हें ताक पर रख देते हैं जब मामला धन कमाने का हो।
वास्तव में यह युद्ध सिर्फ मिसाइलों और बमों का नहीं है—यह उस अंतरात्मा की लड़ाई है जिसे इस्लामी मुल्कों ने शायद बहुत पहले खो दिया था। अरब देश आज भी मक्का और मदीना की वजह से मुस्लिम दुनिया में इज्जत पाते हैं, वरना इनकी राजनीति और सोच को देखकर कोई मुसलमान इन्हें सलाम न करता।
अब सोशल मीडिया पर लाखों मुसलमानों की भावनाएं उमड़ रही हैं। वे इन देशों के दोहरे रवैये से आहत हैं और खुलकर इनके विरोध में बोल रहे हैं। ईरान के साथ जो हो रहा है, वह सिर्फ उस देश पर हमला नहीं है—यह पूरी मुस्लिम उम्मत की चुप्पी और नेतृत्वहीनता पर एक तीखा सवाल है।
यह समय आत्ममंथन का है—कि क्या हम केवल नाम के मुसलमान रह गए हैं, और हमारे देश केवल नाम के इस्लामी?